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(५९) हुआ देखा । उसको कुशलने पूछा कि-'तुम उत्तम पुरुष होने पर भी पांख रहित पक्षीके अनुसार क्यों चडते पड़ते हो ? ' यह श्रवण कर विद्याधर बोला कि-' में वैताढयका वासी विचित्रगति नामक विद्याधर हुँ । इस समय मैं श्रीपर्वतको गया था, वहांसे वापिस लौटते हुए मेरा मित्र विधाधर मिला, उसको कितनेक शस्त्रके घाव लगे हुए देखे, तब मैंने पूछा कि-तेरेको यह क्या हो गया ? उसने कहा कि-मेरी स्त्रीको एक दूसरा विद्याधर ले जा रहा था, उसके पीछे जा कर युद्ध करके मेरी स्त्रीको ले कर यहां रहा हूं। युद्ध में घाव लगे हैं। ' यह सुनकर मैंने व्रणसंरोहणी औषधिके प्रयोगसे उसको सज किया। वह विद्याधर स्त्री को कर अपने स्थानकको गया; परन्तु हे भाइ ! व्याकुलताके कारण मैं आकाशगामिनी विद्याका पद भूल गया हुं, जिससे गिर जाता हुँ ।' यह बात श्रवण कर कुशलने कहा कि-' तुम्हारी विद्याका अग्रिम पद याद कर मुझे कहो' । तब विद्याधरने प्रथमका पद कह सुनाया। उसके अनुसार कुशलने पदानुसारिणी प्रज्ञाके बलसे समस्त परिपूर्ण आकाशगामिनी विद्याके पद कह सुनाये, जिससे विद्याधर हर्षित और विस्मित हुआ एवं विचार करने लगा कि-' यह पुरुष प्रज्ञा, रूप और गुणों करके श्रेयस्कर है। परोपकार करने में दक्ष है। ऐसे पुरुष विरल ही होते हैं।' ऐसा सोच कर कुशलके मात पिताका नाम पूछ कर विद्याधर स्वस्थानको चला. गया। . दसरे दिन वेसण सेठका घर पूछता हुआ विधा
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