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(४७) ती ही गई, और छोटाभाई देखता ही रहा; मगर किसीको एक कौडी भी देता नहीं, जिससे लक्ष्मी बढनेके बदले घटती ही गई । वह भाईकी ऋद्धिको लेने के लिये बडे भाईके साथ बहुत कलह करने लगा। उस कलहके योगसे एक दिन बडे भाईने गुरुकी देशना श्रवण कर वैराग्य पा कर दीक्षा ली। काल करके प्रथम देवलोकमें उत्पन्न हुआ । और छोटाभाई कृपण होने पर भी निर्धन रहा । लोगोंके द्वारा निन्दनीय हो कर उसने तापसी दीक्षा ले कर अज्ञान तप किया और असुरकुमार देवोंमें जा कर उत्पन्न हुआ । वहांसे चव कर यहाँ तू धनसार नामक सेठ हुआ है। और मैं-बडाभाई देवलोकसे चव कर तामलिप्ती नगरीमें एक व्यवहारिकके वहां पुत्र रूपसे उत्पन्न हुआ । और दीक्षा ले घातिकर्म क्षय करके केवलज्ञान उपार्जन कर मैं अभी यहां आया हूँ।' यह श्रवण कर सेठ अपने पूर्वभवका भाई जान कर बहुत हर्षित हुआ। फिर गुरुने कहा कि- तू दान नहीं दे सका, जिससे अंतराय कर्म उपार्जन किया। तथा दान देते हुएको रोका, जिससे सर्व धन क्षय हो गया।' इत्यादि बातें सुनकर धनसार सेठने ऐसा नियम किया कि-'अबसे मैं जितना धन उपार्जन करूंगा, उनमेंसे चौथा हिस्सा धर्मकार्यमें खर्च कर डालूंगा। ऐसी प्रतिज्ञा यावजीवके लिये करता हूँ। तथा परके दोषोंको प्रकट करूंगा नहीं।' ऐसा कह कर श्रावकधर्म अंगीकार किया । और केवली भगवानके पास पूर्वभवके अपराधकी क्षमा मागी ।
अब सेठ तामलिप्ती नगरीमें जा कर व्यापार करने
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