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(२८) नजीकमें कोटवाल खडा था, उसने निधान देखा और राजासे जा कर कहा कि पद्म सेठ उनमें निधान प्रगट होता देखकर घरको चला गया। उसी समय राजाने कोटवालको कहा कि-यह सेठ पीछेसे धन लेनेको गया होगा । अतः तू पुनः वहां जा और देख कि-उसका क्या हुआ है ? । कोटवाल फिर वहां गया; किन्तु सेठको वहां नहीं देखा । तब फिर राजाके पास जाकर कहा कि-' स्वामिन् ! सेठ निधान लेनेको तो आया नहीं'। ऐसा श्रवण कर राजाने सेठको बुलाकर पूछा कि- तुमने निधान क्यों नहीं लिया ? ' सेठने कहा कि'महाराज ! मेरे पास अखूट निधान भरा पडा है, तो फिर दूसरे निधानको मैं क्या करूं ? ' राजाने पूछा कि- तुम्हारे पास कौनसा निधान है ?' तब सेठने कहा कि- मेरे पास सन्तोषरूप अक्षय निधान है ' । यह श्रवण कर राजा बहुत हर्षित हुआ और सेठको निर्लोभी जानकर नगरसेठके पदसे विभूषित किया ।
किसी समय उद्यानमें श्रुतकेवली पधारे । उनको राजा तथा पद्म सेठ मिलकर वंदन करनेको गये। धर्म देशना सुनने के पश्चात् सेठने गुरुसे पूछा कि-' हे महाराज ! मुझे सत्य और संतोष प्रति अति रुचि है, इसका कारण क्या ? और मेरी स्त्रीको मुखरोग होनेसे उसका काहल स्वर हुआ है इसका भी कारण क्या है ? सो कृपाकर मुझको कहिए ।
सेठका यह कथन सुनकर गुरु उनके पूर्वभव कहने लगे कि-'इसी नगरमें नाग सेठ रहता था, वह असत्यShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com