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(९) तपश्चर्या करता था। और निरंतर शिवका ध्यान हृदयमें धरता था। जिसके कारण वह तापस सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। किसी समय देवलोकमें एक धन्वंतरी नामक देव, कि जो तापसभक्त मिथ्यादृष्टि था, वह, और दूसरा विश्वानर नामक देव कि जो सम्यग्दृष्टि था, वे दोनों मित्रदेव अन्योन्य अपने अपने अंगीकार किये हुए धर्मकी प्रशंसा करने लगे । एकने कहा कि-' जैन धर्म समान कोइ धर्म नहीं है,' जब दूसरेने कहा कि- शिवधर्मके समान कोई धर्म नहीं है ' । पश्चात् दोनों देवोंने ऐसा निश्चय किया कि अपने दोनों धर्मोंके गुरुओंकी परीक्षा करें। उस समय जैनधर्मनुयायी देवने कहा कि-श्रीजैनधर्ममें जो जघन्य नवदीक्षित गुरु हो, उसकी परीक्षा की जावे और शैवधर्ममें जो चिरंतनकालका महातपस्वी गुरु हो, उसकी परीक्षा की जावे । जिस परसे अच्छे बुरेकी पहिचान शीघ्र हो जायगी । इस प्रकार निश्चय करके वे दोनों पृथ्वीतल पर आये।
उस समय मिथिला नगरीका पद्मरथ राजा राजपाट छोड कर चंपा नगरीमें श्रीवासुपूज्य स्वामीके पास दीक्षा लेकर तुर्तही वापिस लौट रहा था । उसे रास्तेमें आते हुए देखकर प्रथम उसकी परीक्षा करने के लिये अनेक प्रकारके मिष्टान्न भात-पानी सरस बना कर देवोंने उसको बतलाये। वह नवदीक्षित मुनि भूख व प्याससे पीडित था, तथापि उसने उक्त मिष्टान्नको दूषित जान कर नहीं लिया । और अपने मार्गसे चलायमान नहीं हुए। तब उन देवोंने एक रास्तेमें कंटक व कंकरोंको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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