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(८) आलप्पालपयंपी सुदुदृबुद्धी य जो कयग्यो य । बहुदुक्खसोगपउरो मरिउं नरयम्मि सो याइ ॥ १७ ॥
अर्थात्:-जो १ जीवोंकी घात करे-जीवहिंसा करे; २ अलीक यानि झूठ वचन बोले; ३ परद्रव्यका हरण करे अर्थात् चोरी करे; ४ परस्त्रीगमन करे; एवं जो ५ बहु पापपरिग्रहमें आसक्त होवे । इन पांच प्रकारके खराब कृत्योंको करनेवाला जीव नरकका आयुष्य बांधता है (१५) ६ जो चंडो अर्थात् क्रोधी हो. ७ माणी यानि मानी-अहंकारी हो, धिट्टो-धृष्ट अर्थात् किसीको नमे नहीं, ८ मायावीकपटी होवे, ९ निट्टरो-निष्ठुर अर्थात् कठोर चित्तवाला हो, १० खर-अर्थात् रौद्रस्वभाववाला हो, ११ पावो अर्थात् पापी हो, १२ चुगलखोर-दुर्जनता पारायण हो, १३ अतिपापके हेतुभूत वस्तुओंका संग्रहशील हो, १४ साधुकी निंदा करे; उपलक्षणसे साधुओंका प्रत्यनीक हो, १५ अधम-नीच स्वभाववाला हो, १६ असंबंद्ध वचन बोलता हो-दुष्ट बुद्धिवाला हो, १७ तथा जो कृतघ्न यानि किये हुए उपकारको न जाने ऐसा जीव मृत्यु पाकर बहुत दुःख और शोकसे भरी हुइ नरकगतिमें जाता है (१७)
यहां प्रथम हिंसा आश्रयी अष्टम सुभूम नामक चक्रवर्ती अत्यंत पापकर्मके करनेसे नरकगतिमें गये, उसकी कथा कहते हैं:
" वसंतपुरी नगरीके वनमें एक आश्रम में जमदग्नि नामक एक तापस रहता था । वह बहुत कष्ट सहन कर
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