Book Title: Dhyan Yog Vidhi aur Vachan
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 15
________________ झुठला दिए जाएँगे। अगर जीवन की, चेतना की, आत्मा की मृत्यु होती है, तो इसका अर्थ यह होगा कि दुनिया के सभी ग्रन्थ, जो आत्मा को अजर-अमर - अविनाशीशाश्वत कहते हैं, अनुभव से विपरीत सिद्ध हो जाएँगे। पर आश्चर्य की बात तो यह है कि दुनिया में मृत्यु से वही सबसे ज्यादा भयभीत हैं, जो मानते हैं कि आत्मा की कभी मृत्यु नहीं होती। पर यह सब वे सिर्फ जानते नहीं, मानते हैं । रोज गीता का पाठ पढ़ते हैं - नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः न इसे कोई काट सकता है, न कोई इसका छेदन कर सकता है, न इसे कोई जला सकता है- फिर भी सबसे ज्यादा वे ही मृत्यु से भयभीत हैं । अर्थात् उनके जीवन और शास्त्रों के सिद्धान्त भिन्न-भिन्न हैं 1 मैं नहीं चाहता कि मेरे आस-पास कोरे माटी के, बिना बाती के सैकड़ों दीपक सजे पड़े हो । मेरे लिए तो प्रज्वलित बीस दीपक ही पर्याप्त हैं। मैंने कल एक महानुभाव से कहा भी था कि मेरे जाने के बाद हो सकता है आप ध्यान शिविर लगायें और आप उसमें अकेले हों । यह मेरे लिए आनन्द का विषय होगा। एक जलता हुआ दीया भी अंधकार को दूर करने में समर्थ होता है । बुझे दीपक फना हो जाएँगे। लाखों बुझे दीपकों से जलता हुआ एक चिराग ही काफी है। इन सभी ध्यानशिविरों के आयोजन का यही ध्येय है कि कहीं किसी अन्तर में, किसी कोने में, किसी व्यक्तित्व में सत्य की ज्योति उजागर हो जाए। मैं जानता हूँ, जब भी इस प्रकार की स्वयं को जाग्रत करने की अभीप्सा उत्पन्न होगी, लोग विमुख करार देंगे। वे परम्परा से विमुख कहेंगे। वे पूछेंगे यह कौन-सा धर्म है कि सबसे अलग चला जा रहा है। इस जगत् का तो यही स्वभाव है। ध्यान भीड़ से विमुख होने का ही तो विज्ञान है । पागलों की जमात में अगर समझदार भी पैदा हो गए तो पागल ही समझे जाएँगे । इस दुनिया की जमात में हम बँधे - बँधाये क्रम के हिस्से हो गए हैं। पैदा होते हैं शिशु के रूप में, धीरे-धीरे बड़े होते चले जाते हैं । शिशु से बालक, बालक से किशोर, किशोर से युवा, युवा से प्रौढ़ और फिर वृद्ध हो जाते हैं। एक दिन पीले पत्ते की तरह गिर जाते हैं । हमारे कपड़े पुराने होने चले हैं और कपड़ों की तरह यह शरीर भी पुराना होता चला जाता है । यह नश्वर काया धीरे-धीरे पीछे छूटती चली जा रही है। इस नश्वर काया में जो सचेतन पदार्थ समाया हुआ है, उससे अगर कहीं कुछ मेलजोल कर लेते हैं, चित्त की प्रवृत्तियों से स्वयं को ऊपर उठा लेते हैं, तो यह जीवन की आत्मिक उपलब्धि होगी, अन्यथा जीवन भेड़धसान-सा व्यतीत हो जाएगा। एक दिन इसकी कहानी खत्म हो जाएगी। कुछ शेष रहने वाला नहीं है। सुदूर ऊँचाई पर पानी की टंकी रखी है, नीचे लगा हुआ नल खुला है। पानी रिस रहा है, एक क्षण ऐसा 14| Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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