Book Title: Dhyan Yog Vidhi aur Vachan
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 25
________________ करना चाहते हो, जीवन की धन्यता पाना चाहते हो, जीवन को एक उत्सव का रूप देना चाहते हो, तो इसके लिए जरूरत इस बात की है कि जीवन के कृत्य सहज बन जाएँ ताकि हम अपने आपको बंधन-मुक्त महसूस कर सकें। मनुष्य चाहे तो अन्तस-चेतना को उपलब्ध कर सकता है, वहीं वह भौतिकता की चकाचौंध में ही उलझकर रह जाता है तो उसका जीवन गर्त बन जाता है। मनुष्य पूर्ण इकाई नहीं है । यह तो पशु और प्रभु के बीच की कड़ी है। निर्णय तुम्हारे हाथ में है कि तुम प्रभुता को पाना चाहते हो या पशुता को। स्वयं को महावीर बनाना चाहते हो या अपना महाविनाश करना चाहते हो । पाप या पवित्रता दो ही विकल्प हैं मनुष्य के लिए। पशु कभी गिरता नहीं है क्योंकि वह पशु है । वह पशुता से नीचे क्या गिरेगा। मनुष्य ही गिरता-उठता है। मनुष्य अपना निर्माण करने के लिए स्वतंत्र है। वह जीवन को चाहे जैसा मोड़ दे सकता है। उज्ज्वलता का भी और अंधकार का भी। मनुष्य निम्न से निम्नतम हो सकता है और श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम भी। ___मनुष्य अंतिम ऊँचाई को भी छू सकता है और अंतिम तल को भी। पशु सिर्फ पशु है। उसके पास न तो पशुता से ऊपर उठने की क्षमता है और न नीचे गिरने की। वह थिर है, परंतु मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है। यह ध्यान-शिविर हमारी ऊर्जा को जागृत करके उसका सदुपयोग करने का प्रयास है। प्रभु से प्रार्थना है कि वह इस अभियान में आपको सफलता दे। हमारा जीवन केवल चिंतन और विचार तक सीमित न रहे, अपितु आँख खोलकर देखने का भी अभियान हो। जब महावीर महावीर हो सकते हैं, बुद्ध बुद्ध हो सकते हैं तो हम उन ऊँचाइयों को क्यों नहीं छू सकते। हमें, जो भीतर बैठा है, उसके दर्शन करने हैं। जो भीतर है उसे तलाशना है, तराशना है। प्रभु करे कि दृष्टा रह जाये और दृश्य हट जाये। पर हट जाये और स्व का स्व में बसेरा हो जाये। तुम अतिथि नहीं आतिथेय हो, तुम स्वामी हो अपने आपके, अन्तर के वैभव के। एक न एक दिन सब अतिथियों को जाना है। अगर हमने अपने आपको आतिथेय बना लिया है तो हमें जाने की आवश्यकता न होगी। हम स्वयं को स्वयं में प्रतिष्ठित कर लें। अगर ऐसा हो सकता है, तो हमारी काया प्रभु की प्रतिमा बन जायेगी और इस काया में रहने वाली आत्मा उसी प्राणप्रतिमा में प्रतिष्ठित होकर दिव्य स्वरूप को उपलब्ध परात्मा बन जायेगी। 24 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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