________________
तो उससे दुःख ही मिलेगा न! ___ हम जिस परिधि में उलझे हैं, बाह्य वस्तुओं में उलझे हैं, क्या इनसे कभी सुख मिल पाएगा? आज जिसे हमने सुख मान रखा है, अगर हम उसी को आत्म-सुख कहते हैं तो बात अलग है, अन्यथा इन सब में किंचित् भी आत्म-सुख नहीं है। अगर संसार में,शरीर में या मन में जीने से सुख मिल जाता तो कभी भी जरूरत नहीं पडती महावीर को, बुद्ध को राजमहलों का त्याग कर वनवासी होने की।
यह हमारी भ्रांति है, जो हमने मान रखा है कि सब कुछ पाने से सुख मिलता है। मेरे विचार से तो चाहे मनुष्य की हथेली में संपूर्ण संसार का साम्राज्य थमा दिया जाये, इसके बावजूद दुःख तो उसके जीवन में तब भी बना रहेगा, क्योंकि सुख-दुःख का संबंध मात्र वस्तुओं से नहीं है। वह तो अन्तद्र से है। सब कुछ पाने के बावजूद यदि केन्द्र-बिंदु का स्पर्श न कर पाये, स्वरूप में प्रतिष्ठित न हो पाये, तो हमें योनि-दरयोनि पीड़ित होना पड़ेगा।
जरा कल्पना करो कि तुम छोटे-मोटे मकान के स्वामी हो, धन, मकान, परिवार के स्वामी हो। और महावीर एवं बुद्ध के पास जितना तुम्हारे पास है, उससे कई गुना ज्यादा होगा। सारी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध थीं उन्हें । लेकिन तकलीफ यही थी कि वे खुद अपने पास नहीं पहुँच पाये थे।खुद से ही अनचीन्हे रह गये। इसी का परिणाम कि सब कुछ मिलने पर भी राजमहलों में उन्हें शांति न मिली। तुम आश्चर्य करोगे कि यहाँ दुनिया के लोग सुख-शांति पाने के लिए सत्ता-संपत्ति की ओर दौड़े जा रहे हैं और महावीर-बुद्ध ने सुख-शांति पाने के लिए ही संपत्ति का त्याग किया था। ऐसा करके उन्होंने शांति पायी भी थी।
लोग कहते हैं महाराजजी ! सब है, पर सुख-शांति नहीं है। जब मार्ग ही गलत पकड़ रखा है तो मंजिल मिलेगी कहाँ से? सब जगह जाकर आ गये हो शांति की तलाश में, पर नहीं मिली। निराश मत होओ, अभी एक केंद्र और है तुम्हारे लिए, जहाँ अभी तक जा नहीं पाये हो। एक बार वहाँ जाकर तो देखो। कितना अद्भुत आनंद, अपूर्व शांति वहाँ उपलब्ध है। यह ध्यान-शिविर उसी अन्तर-शांति की यात्रा के लिए उठाया गया एक कदम-भर है। इन दिनों में तुम उतरोगे शरीर के पार, मन के पार, विचारों के पार । इन सबके पार जहाँ पहँचोगे वहीं तुम्हारा मूल केंद्र-बिंदु होगा, फिर तुम वहाँ पहुँचने के बाद अव्याबाध आनंद की अनुभूति कर सकोगे। ___ कभी कुएँ को खुदते देखा है? कूप कभी ऊपर के पानी की अपेक्षा नहीं रखता। उसकी आपूर्ति तो भीतर के झरनों से ही हो जाती है। खुदाई करते-करते माटी हटी और पानी ऊपर आ गया। पानी कहीं बाहर से नहीं डाला गया, भीतर ही था। परिश्रम
| 45
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org