Book Title: Dhyan Yog Vidhi aur Vachan
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 144
________________ परम-प्रेम, पावन-दशा, जीवन के दो फूल। बिन इनके यह चेतना, जमीं रजत पर धूल ॥ 5 ॥ दृष्टि भले आकाश में, धरती पर हों पाँव। हर घर में तरुवर फले, घर-घर में हो छाँव ॥ 6॥ मंदिर का घंटा बजे, खुले सभी की आँख। दिव्य-ज्ञान के सबद दो, मिले पढ़न हर साँझ ।। 7 ।। शुभ करनी हर दिन करें, टले न कल पर काम। सातों दिन भगवान के, फिर कैसा आराम ॥ 8 ॥ साधु नहीं, पर साधुता पर सकता इंसान। पंक बीज पंकज खिले, हो अपनी पहचान ॥ १॥ कोरा कागज़ जिंदगी, लिख चाहे जो लेख। इन्द्रधनुष के रूप-सा, हो अपना आलेख॥ 10॥ ज्योति-कलश है जिंदगी, सबमें सबका राम। भीतर बैठा देवता, उसको करो प्रणाम ॥ 11 ॥ काया मुरली बाँस की, भीतर है आकाश। उतरें अन्तर्-शून्य में, थिरके उर में रास॥ 12 ॥ मन के कायाकल्प से, जीवन स्वर्ग समान। भक्ति से शृंगार हो, रोम-रोम रसगान॥ 13 ॥ मन मन्दिर इंसान का, मरघट, मन श्मशान। स्वर्ग-नरक भीतर बसे, मन निर्बल, बलवान॥ 14॥ मन की गर दुविधा मिटे, मिटे जगत्-जंजाल महागुफा की चेतना, काटे मायाजाल॥ 15 ॥ जग जाना, पर रह गये, खुद से ही अनजान। मिले न बिन भीतर गये, भीतर का भगवान ॥ 16 ॥ 'समझ' मिली, तो मिल गयी, भवसागर की नाव। बिन समझे चलते रहे, भटके दर-दर गाँव ॥ 17 ॥ मोक्ष सदा सम्भव रहा, मोक्ष-मार्ग है ध्यान। भीतर बैठे ब्रह्म को, प्रमुदित हो पहचान॥ 18 ॥ | 143 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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