Book Title: Dhyan Yog Vidhi aur Vachan
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 150
________________ इस प्रक्रिया से गुजरते हुए हम स्वयं अनुभव करेंगे कि हमारी अन्तर्-सजगता जैसे-जैसे प्रगाढ़ होती है, विचारों एवं वृत्तियों में होने वाली उथल-पुथल स्वतः शांत होती जा रही है। साँसों में पुनः लयबद्धता और संतुलन स्थापित हो रहा है। विचारों-विकल्पों की आवृत्ति कम होती जा रही है और वृत्तियों के आवेग कम होते जा रहे हैं। धीरे-धीरे हम उनसे मुक्त होते जा रहे हैं और हमारा बोधि - केन्द्र जाग्रत होता जा रहा है। अन्तर्-सजगता के इस चरण से मुख्यतः हमारा अपने अचेतन और अवचेतन मन से सम्पर्क होता है, हम अपनी दमित और उद्दीप्त मनोदशा से परिचित होते हैं। संवेग-उद्वेग, वृत्ति-विकल्प, आर्त-रौद्र मनोपरिणाम शिथिल पड़ते हैं और चित्तदशा शांत होती है। आत्म-तत्त्व जाग्रत होता है। तृतीय चरण : अन्तर्यात्रा 10 मिनट ___ अपने विचारों, वृत्तियों से गुजरने और उनसे मुक्त होने के उपरांत साँसों के मध्य से अपनी चेतना को प्राण-क्षेत्र पर लाएँ अर्थात् नाभि और कमर-प्रदेश के मध्य ले जाएँ। यह स्थान आंतरिक शक्ति का केन्द्र है। नाभि से पीछे सुषम्ना तक के ऊर्जाक्षेत्र पर साँसों को, प्राणों के प्रवाह को केन्द्रित करें। चित्त, मन और बुद्धि को नाभिप्रदेश के प्राण-क्षेत्र पर उलट डालें। श्वास-धारा मंदतर और पुलकभरी हो। पाशविक वृत्तियों का केन्द्र नाभि से नीचे स्थित है, जिसकी जड़ें ठेठ पाँवों तक फैली हई हैं। सजगता को नाभि से नीचे एक-एक अंग से गुजारते हुए संवेदनाओं का निरीक्षण कर अँगूठे तक पहुँचें और इन संवेदनाओं से मुक्त होते हुए उल्टे क्रम से वापस ऊपर नाभि पर स्वयं को केन्द्रित करें। इस प्रक्रिया से हमारी पाशविक वृत्तियाँ शान्त-मौन होने लगी हैं। ___ इस चरण से स्वास्थ्य, प्राण एवं शक्ति केन्द्र सक्रिय होता है और नीचे की उत्तेजक ग्रन्थियाँ शांत एवं परिष्कृत होती हैं। हमारे आन्तरिक रोग क्षीण होते हैं तथा शरीर की जो तीन-चौथाई ऊर्जा काम-क्रोधजन्य संवेग-आवेग में नष्ट होती है, उसकी रक्षा होती है। चतुर्थ चरण : चैतन्य जागरण 10 मिनट ___ गहरे दीर्घ श्वास-प्रश्वास के माध्यम से रीढ़ की हड्डी के अंतिम सिरे के नीचे स्थित शक्ति-कुंड के साथ सभी अन्तस्-केन्द्रों को जगाएँ, प्राणों की समग्रता से शक्ति का जागरण करें। नाभि-केन्द्र पर ऊर्जा का स्वागत और संचय करें। और अब अत्यन्त पुलक के साथ अपनी अन्तर-ऊर्जा को ऊपर उठाते चले जाएँ । हृदय-प्रदेश तक पहुँचें और आनन्द का कमल खिलने दें। | 149 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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