Book Title: Dhyan Yog Vidhi aur Vachan
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 148
________________ मनोमस्तिष्क भी खिल उठता है। हो सकता है इस प्रक्रिया में हँसते-हँसते हमारी रुलाई फूट पड़े और हम जोरजोर से रोने लगें पर उसे रोकने का प्रयास न करें। खुलकर रो लें।आँसुओं के ये फूल गुरु-चरणों में अर्पित करें और तनाव-मुक्त हो जाएँ। अवसाद के रोगी यदि इस प्रक्रिया को प्रतिदिन अपनाएँ, तो लगातार तीन माह के प्रयोग से वे रोग-मुक्त हो सकते हैं। संबोधि-ध्यान ___45 मिनट सायंकालीन ध्यान के लिए गुरुदेव द्वारा जो विधि आविष्कृत है, उसे संबोधिध्यान की संज्ञा दी गई है। संबोधि का शब्दिक अर्थ है - सम्यक् बोध या सम्पूर्ण बोध । संबोधि-ध्यान की विधि हमारी चेतना पर आच्छादित कषायों के आवरणों को हटाकर शुद्ध, संबुद्ध चैतन्य को प्रकट करने में बहुत ही सहायक हो सकती है। वस्तुतः दिनभर हमारी चेतना सांसारिक प्रवृत्तियों में लिप्त रहती है, औरों के लिए जीती है। लेकिन जिस तरह साँझ ढले पंछी अपने नीड़ में लौटकर विश्राम पाता है, वैसे ही हमारी आत्मा निजस्वरूप में विश्राम चाहती है,स्व में स्थित - स्व + स्थ होना चाहती है। सम्यक् समझ का अभाव होने के कारण व्यक्ति मन-बहलाव के साधन अपनाता है, पर ये साधन शांति, मुक्ति और आनन्द देने के बजाय, महज मन को भ्रमित ही करते हैं। हम अपनी बेचैनी का कारण नहीं समझ रहे हैं। बेचैनी का कारण है दिन-भर पर-पदार्थों से लिप्त हुई आत्मा परिश्रान्त होकर अपनी निजता में, अपने मूल अस्तित्व में जीना चाहती है। रात के बाहरी अंधकार में अंतर के प्रकाशित होने की, आत्म-प्रकाश के प्रकट होने की संभावना अधिक होती है। क्योंकि साँझ से ही चेतना निजत्व की खोज की बेचैनी और छटपटाहट से भर जाती है। तब इस खोज को आगे बढ़ाने वाले प्रयास अधिक गहरे और सफल हो सकते हैं, क्योंकि उस प्रयास में आत्मा की सहमति भी जुड़ जाती है। 'संबोधि-ध्यान-विधि' ध्यान की बहुत की गहरी विधि है। परिणाम हमारी अभीप्सा, लगन और प्रयासों की सघनता पर निर्भर करता है। अतः हम प्रमाद त्यागकर अपनी ही अथाह गहराइयों में डूबें । बस चार चरणों की ही तो बात है। पाँचवाँ चरण तो मंज़िल की उपलब्धि का चरण होगा। डग भरा कि भोर हुई। | 147 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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