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ध्यान के द्वारा संसार में होते हुए भी कमलवत् जीना है। ध्यान तो स्वयं में जीने की प्रक्रिया है। ध्यान के लिए आपको कहीं जाना नहीं पड़ता। सारा परिवार सो गया आप भी सो रहे हैं अचानक आँख खुली, होश आया और ध्यान में निमग्न हो गए। बेटा तो सोचेगा पिताजी सो रहे हैं, पर आप अपने में हो रहे हैं। ध्यान तो सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, यहाँ-वहाँ चाहे जहाँ कर सकते हैं।
ध्यान सहज मार्ग है। ध्यान कोई गहन-गंभीर साधना नहीं है। गंभीर साधना तो वह है जहाँ आप अपने स्वभाव से विपरीत कार्य करते हैं। ध्यान तो सहजता में जीना है। स्वभाव में जीना है। आपके सारे प्रयास आपके स्वभाव के विपरीत हैं। आपका क्या ख्याल है कि क्रोध करना मनुष्य का स्वभाव है? नहीं; क्षमा, प्रेम और करुणा हमारा स्वभाव है। फिर भी हम क्रोध किए चले जाते हैं। एक बार क्रोध करने में जितनी ऊर्जा का क्षय होता है, वह पूरे दिन की संचित ऊर्जा होती है, जबकि क्षमा में इसकी आधी ऊर्जा ही व्यय होती है बल्कि कहना चाहिए कि ऊर्जा संचय भी होती है।
यह मत कहो कि दुनिया स्वर्ग पाने के लिए दौड रही है। सच्चाई यह है कि स्वर्ग को पाने की दौड़ कहने भर की है, अन्ततः यह दौड़ नरक में ही ले जा रही है । मनुष्य की ऊर्जा का व्यय-अपव्यय नरक के लिए हो रहा है। जितनी ऊर्जा व्यय करके मनुष्य नरक का संसार रच रहा है, उससे आधी ऊर्जा, एक-चौथाई ऊर्जा का उपयोग वह सार्थक कार्यों में कर ले तो जीवन स्वयं स्वर्ग बन जाए। वस्तुतः हमें जीवन में इस संकल्प को दोहराना पड़ेगा कि शायद मैं संन्यासी न बन पाऊँ, वेश-रूपान्तरण न कर पाऊँ, लेकिन जीवन का रूपान्तरण तो कर सकता हूँ। संसार के बीच रहकर जीवन का रूपान्तरण हो जाए तो अति उत्तम । एक व्यक्ति वह है जो घर-बार त्याग कर जंगलों में साधना कर रहा है, दूसरा वह है जो कीचड़ में कमल की भाँति परिवार के मध्य साधनारत हैं, इन दोनों में दूसरा गृहस्थ होते हुए भी मुक्तात्मा है।
यह भी आवश्यक नहीं है कि हिमालय की गुफाओं में साधनारत व्यक्ति साध्य को उपलब्ध हो ही गया हो। वह वहाँ रहकर भी दिल्ली की कल्पनाएँ कर सकता है और आप दिल्ली में रहकर हिमालय की गुफाओं की, वहाँ की साधना की, वहाँ के आभामंडल की कल्पना कर सकते हैं। साधना का संबंध न स्थान के साथ है, न देह के साथ है, न वातावरण के साथ वरन् व्यक्ति के स्वयं के साथ है। यह न सोचें कि कभी साधु बनेंगे, प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे, दीक्षा लेंगे तब साधना, जप-तप करेंगे। नहीं! वह वेला आएगी तब तो उसका स्वागत है लेकिन संकल्प आज से ही प्रारम्भ करना होगा, अनासक्ति की पहल करनी होगी। मनुष्य के जीवन में विकास का अवरोधक
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