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पचास फीसदी जनता के पास सारी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हैं, क्या फिर भी वह शांति से जी पा रही है? अगर हम यह सोचें कि दुनिया में सुख-वैभव भर दिया जाए और सभी रोटी-कपड़ा और मकान को पा लें, तो क्या यहाँ शांति कायम हो पाएगी? क्या भीतर की शांति को उपलब्ध कर पाएँगे? भीतर की शांति का संबंध इन परपदार्थों के साथ नहीं है। इसलिए मेडीसिन के साथ दूसरा शब्द आया 'मेडीटेशन'। अपने स्वभाव में उतरो, ध्यान में डूबो और प्रतिपल-प्रतिक्षण इसकी अनुभूति करने का प्रयास करो कि देह अलग है, चेतना अलग है। परीक्षा की घड़ी में भी अहसास बना रहे कि चेतना और देह अलग है।
यह बात आप बहुत पहले से जानते हैं कि चेतना और देह अलग-अलग है। लेकिन जब भी परीक्षा की वेला आई आप चूक गए और देह को ही आत्मा मान बैठे। भगवान महावीर की गाथा है -
'सीसं जहां सरीरस्स जहा मूलं दुमस्स य।
सव्वस्स साहु धम्मस्स तहा झाणं विधीयते॥' 'मनुष्य के शरीर में सबसे महत्त्वपूर्ण उसका मस्तिष्क है। अगर मस्तिष्क खो गया, तो शरीर बेकार हो गया। वृक्ष में सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व जड़ें हैं। पत्ते काट दोगे, फल-फूल तोड़ लोगे, डालियाँ-तना काट दोगे, अधिक फ़र्क न होगा लेकिन जड़ ही काट दोगे तो वृक्ष का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। जिस तरह मनुष्य के शरीर में मस्तिष्क महत्त्वपूर्ण है, वृक्ष में जड़ महत्त्वपूर्ण है, उसी तरह साधना के जितने भी आयाम हैं उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व ध्यान है। 'सव्वस्स साह धम्मस्स तहा झाणं विधीयते' - दुनिया के जितने भी श्रेयस्कर प्रमुख हैं उनमें सबसे श्रेयस्कर मार्ग ध्यान है। ध्यान के माध्यम से ही व्यक्ति देहाध्यास से, जड़ता के व्यामोह से दूर हटकर, अपनी चेतना में लौटकर आता है। संसार के दलदल में रहकर भी उससे ऊपर उठा रहता है।
ध्यान ही एकमात्र ऐसा तत्त्व है जिससे सब सहमत हो जाएंगे। अगर आप संसार त्याग कर साधु या साध्वी बनना चाहें तो संभव है आप ऐसा न कर पाएँ क्योंकि घर, परिवार, बच्चों का मोह बाधा बन जाएगा, लेकिन ध्यान ! इसके लिए तो कुछ भी नहीं छोड़ना है। संन्यास के लिए तो पूरा संसार छोड़ना होगा, लेकिन ध्यान में डूबने के लिए आप जहाँ, जैसे, जिस अवस्था में हैं डूब सकते हैं। संन्यास लेने के लिए परिवार की आज्ञा लेनी होगी, दुकान का मोह छोड़ना होगा, पद-प्रतिष्ठा को तिलांजलि देनी होगी, तब भी अ-मन मुनि हो जाओ कोई निश्चित नहीं, लेकिन ध्यान तो संसार में रहकर भी संन्यास का फूल खिलाना है।
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