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रखता है, जितनी नृत्यकार रस्सी पर नाचने में। कौन वीतराग है, इसका कोई प्रमाणपत्र नहीं होता है। वीतराग की पहचान साधक की सजगता और साक्षी-भाव से जुड़ी रहती है।
धम्मपद की कथाओं में एक कथा है कि एक दिन तथागत बुद्ध प्रवचन दे रहे थे। अचानक उनके कंधे पर एक मक्खी आकर बैठ गई। उन्होंने मक्खी को उड़ाने के लिए अपना हाथ उठाया। हाथ उठाने की गति तेज थी पर हाथ कंधे तक पहुँचे, उससे पहले ही मक्खी उड़ गई । बुद्ध को अपने कृत्य पर क्षोभ हुआ और वे बड़ी मंदगति से मक्खी को उड़ाने का अभ्यास करने लगे।
शिष्यों ने पूछा - 'प्रभु! मक्खी तो कभी की उड़ गई फिर आप यह हाथ क्यों हिला रहे हैं।'
बुद्ध मुस्कराए। कहा - 'यह तो मैं भी जानता हूँ, लेकिन मुझे क्षोभ इस बात का है कि मक्खी को उड़ाने में मेरी जितनी सजगता रहनी चाहिए थी, नहीं रह पाई। मैंने उसे बेहोशी में उड़ाया। लेकिन जैसे ही मुझे होश आया, मैंने अभ्यास किया कि फिर कभी मक्खी आकर बैठे तो मुझे कितनी सजगता के साथ उसे उड़ाना है। मेरे लिए यह बात गौण है कि मक्खी उड़ी या बैठी रही। खास बात यह है कि उसे उड़ाने में मैंने कितनी सावधनी रखी।'
महावीर जो सजगता और अप्रमत्तता की बात कर रहे हैं, वह यही है कि तुम यदि मक्खी को भी उड़ाओ तो उसे उड़ाने में तुम्हारी चेतना पूरी सजगता के साथ जुड़ी रहनी चाहिये। __ हमारा कर्म कैसा है, यह बात गौण है। हम किसी भी कार्य को कितनी तत्परता
और सजगता के साथ करते हैं, महत्त्वपूर्ण यह है। मैं तो कहूँगा कि जाग्रत पुरुष हमेशा अहिंसक होता है और बेहोश व्यक्ति सदा हिंसा में जीता है। हमारा प्रत्येक कार्य बोधपूर्वक हो। बोधपूर्वक कार्य करना अच्छी बात है; बोधहीन कार्य बुरा है। संसार में भी अगर बोधपूर्वक जी रहे हो, तो वहीं तुम्हारे लिए समाधि का राजद्वार खुलेगा और बोधहीन संन्यास में भी सिवा संसार के कुछ भी उपलब्ध नहीं कर पायेगा। सजगता की ज़रूरत केवल सामायिक, प्रतिक्रमण या धार्मिक अनुष्ठानों में ही नहीं है, अपितु जीवन के उन छोटे-छोटे कृत्यों में भी है, जिन्हें हम बेहोशी में यूँ ही पूरा कर देते हैं । सामायिक में मुँहपत्ती को हम तीन-तीन दफा पलट कर देखते हैं, कहीं कोई जीवाणु न हो। शायद वहाँ ऐसी कोई संभावना भी न हो, पर जीवाणुओं को ढूँढने, बचाने की हमारी यह यतना तब पूरी तरह बेहोश हो जाती है, जब हम प्रतिदिन आवश्यक कृत्यों को पूर्ण करते हैं। सुबह उठने पर चाय बनाने के लिये जब हम गैस
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