Book Title: Dhyan Yog Vidhi aur Vachan
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 115
________________ चाहते नहीं थे तब क्रोध पैदा कैसे हो गया, प्रगट कैसे हो गया। वास्तव में उस समय तुम तन्द्रा में थे, बेहोशी में थे, समझ न पाए कि मैं क्या कर रहा हूँ, किसके साथ गाली-गलोच कर रहा हूँ, अपशब्द बोल रहा हूँ। अपनी गलती का अहसास तो तब हुआ जब तुम्हारी वह तन्द्रा टूटी। होश आया तब पता चला कि कहीं कुछ गलत कर रहे हो, फिर क्षमा माँगी, पश्चात्ताप किया। ___ हम बेहोशी में बहुत कुछ कर जाते हैं इसलिए फिर पश्चात्ताप करना पड़ता है। जो होश में जीता है, उसे कभी पश्चात्ताप नहीं करना पड़ता, क्योंकि होश में कभी भी कुछ अनुचित होने की संभावना ही नहीं रहती जब गलत कृत्य नहीं होंगे तो प्रायश्चित्त कैसा? ____ मैं तो कहँगा कि अगर व्यक्ति प्रेम भी करे तो भी होश में करे। जो प्रेम तुम्हें बेहोशी देता है, गिराता है, पागलपन देता है, वह कभी प्रेम नहीं हो सकता। वह तो प्रेम के नाम पर हमारे भीतर पैदा होने वाली राग दशा है, मूर्च्छित अवस्था है। कहते हैं अमुक व्यक्ति प्रेम में विफल हो गया, तो उसने आत्महत्या कर ली कुएँ में गिरकर, फांसी के फंदे पर लटककर या जहर खाकर अपने जीवन का समापन कर लिया, यह प्रेम का पागलपन है, विक्षिप्तता है। जीवन में पैदा होने वाला प्रेम क्षण-क्षण होश से जुड़ा हुआ हो। 'फालिंग इन लव' (प्रेम में गिर जाना) अनुचित है, वह बेहोशी है अगर हो सके तो जीवन में 'राइजिंग इन लव' (प्रेम में उठ जाना) स्वीकार करो, यह उपलब्धि है। जिंदगी ऐसे सोये-सोये बीती जा रही है, लगता है जैसे सिर पर से कोई फिल्म गुजर रही हो। जिंदगी में कई चोटें, कई ठोकरें लग रही हैं, लेकिन इसके बावजूद भी कहीं कुछ होश जैसा नहीं आ रहा। पता नहीं कितने-कितनों की शवयात्रा में जा चुके हो, अनेकों की चिताओं को जलते हुए देख चुके हो फिर भी हमारे जीवन में जाग्रति की ज्योति नहीं जगी। ___ किसी दूसरे की होने वाली मृत्यु वास्तव में हमारी मृत्यु की पूर्व-सूचना है। पड़ौसी का धरती से जाना केवल उसके जाने तक सीमित न रखें। वह तो गया, जातेजाते संदेश छोड़ गया कि तुम्हें भी एक दिन इसी तरह जाना है। देह की आसक्ति, धन की मूर्छा, परिवार की ममत्व-बुद्धि सब कुछ एक क्षण में टूट जाती है। इस अध्रुव और अशाश्वत संसार में व्यक्ति मूर्च्छित है इन्हीं जड़ और पुद्गल पदार्थों के प्रति । बुद्ध वह है जो दूसरों को ठोकर खाते हुए देखकर जग जाए। वह बुद्ध नहीं तो और क्या है, जो जिंदगी में सौ-सौ दफ़ा ठोकर खाने के बाद भी जग नहीं पाता। वह ठोकर पर ठोकर खाए जाता है। फिर भी मुझसे अगर पूछो तो मैं कहूँगा कि रात की 114 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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