Book Title: Dhyan Yog Vidhi aur Vachan
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 85
________________ अगर ऐसे जीवन जीते रहे तो दलदल से ऊपर तो नहीं उठ पाओगे, एक-दो पाँव भीतर ही जाओगे । मैं तो कहूँगा कि तुम संसार में रहो। पति-पत्नी, परिवार, व्यवसाय में रहो, लेकिन तुम्हारे विचार, तुम्हारी भावनाएँ, तुम्हारा चित्त, मन, ये सब संसार के दलदल में नहीं रहने चाहिए। तुम्हारा मन यदि दलदल में चला गया और तुमने भले ही विवाह न किया हो, धन-दौलत भी न हो, तब भी तुम उसमें फँसे रह जाओगे । काम, क्रोध, कषाय ये बाहर कम और व्यक्ति के अन्त में अधिक होते हैं । व्यक्ति जब तक भीतर से आसक्त होगा, बाहर निमित्त मिलने पर उसकी कामनाएँ, वासनाएँ, क्रोध, लोभ सब आते रहेंगे । इसका अर्थ हुआ तुम उस तिनके की तरह हो जिसे हल्का-सा अग्नि का संस्पर्श मिला और जलना शुरू हो गया। तुम्हारी शक्ति इतनी कमजोर हो गई है कि छोटा-सा निमित्त मिलते ही आवेश पैदा हो जाए। किसी रूपवान को देखकर कामना, तृष्णा के बीज फूट पड़ना हमारे जीवन की कमजोरी है । हमारे सामने जब तक ये दो कमजोरियाँ बनी रहेंगी, हम अध्यात्म के मार्ग में प्रविष्ट नहीं हो पाएँगे। पैसा और गोरी चमड़ी हमारी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक हैं। इसलिए कहता हूँ अपनी कमजोरियों को पहचानें । सत्य की, प्रकाश की, उज्ज्वलता की बातें जानने से पहले अंधकार को पहचान लें । जिसे अंधकार की पहचान नहीं, वह प्रकाश को भी नहीं जान पाएगा । असत्य को जानकर सत्य को जाना जा सकता है। तुम सत्य की प्रगति करना चाहते हो, सत्य के मार्ग में प्रवेश करना चाहते हो, तो अपने भीतर समाए हुए ज़हर को तो बाहर निकालो। निश्चित रूप से यह ध्यान तुम्हारे जीवन में कुछ अमृत की बूँदें देगा लेकिन तुम्हारा पात्र यदि अनिर्मल है तो अमृत की बूँदें क्या काम आएँगी । तुम्हारे पास एक बूँद भी ज़हर है तो सौ बूँद अमृत ज़हर हो जाएगा। ज़हर के पत्र में ज़हर डालो या अमृत कोई फ़र्क नहीं पड़ता। वापस निकालोगे तो ज़हर ही मिलेगा । हमारे भीतर इतनी कामनाएँ, लालसाएँ भरी हैं कि ध्यान के समय कुछ बूँदें अमृत की गिर जाती हैं, तो भी हम उसकी अनुभूति नहीं कर पाते। यहाँ अमृत तो सब पर एक जैसा बरस रहा है लेकिन सबकी पात्रता और ग्राहकता अलग-अलग है। तुम यहाँ ध्यान करने भी बैठ जाते हो लेकिन तुम्हारे चित्त में वही पति - पत्नी, दुकान, मकान सब कुछ वही चलता रहता है । हम लोग आबू में थे ध्यान-साधना के लिए; वहाँ इटली का एक जोड़ा आया हुआ था। उन्होंने हमारे पास दस-पन्द्रह दिन ध्यान किया । चर्चा के दौरान एक दिन उन्होंने बताया कि हम इटली में भी ध्यान करते हैं। मैंने पूछा, 'यह तो अच्छी बात है 84 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154