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मुझे कहीं और जाना चाहिए।वह चलते-चलते एक पहाड़ी गुफा में पहुँच गया। वहाँ अंधकार था। उसे पक्का विश्वास हो गया कि यहाँ कोई देखने वाला नहीं है, उसने भी कबूतर की गर्दन मरोड़ दी। वह वापस लौट आया, और बोला, जैसा आपने कहा था, मैंने वैसा ही किया। पहाडी की अँधेरी गुफा में मैंने उसकी गर्दन मरोडी है।' फ़कीर फिर मुस्करा पड़े।
तीन युवक वापस आ गए। लेकिन चौथा नहीं आया। दिन पर दिन बीत गए। फ़कीर चिन्तित होने लगा कि वह गया कहाँ। फ़कीर ने अपने शिष्यों से उसका पता लगाने के लिए कहा। शिष्य उसे ढूँढने निकले। उन्होंने उसे निर्जन जंगल में एक वृक्ष के नीचे चिन्तन करते हुए पाया। शिष्यों ने उससे कहा, 'तुम्हें फ़कीर साहब के पास से गये तीन माह बीत चुके हैं तुम वापस क्यों नहीं पहुँचे।' युवक बोला, 'फ़कीर साहब ने निर्जन स्थान पर कबूतर की गर्दन मरोड़ने को कहा था, लेकिन मुझे आज तक वह सूनसान स्थान नहीं मिला। मैं गुफाओं में गया, जंगलों में गया लेकिन मुझे स्मरण आता कि सदगुरु ने कहा था जहाँ कोई देख न रहा हो, वहाँ हत्या करना। पर यहाँ तो कबूतर स्वयं देख रहा था, मैंने इसकी आँखों पर पट्टी बाँध दी। लेकिन समस्या हल न हुई, मैं स्वयं देख रहा था। मैंने अपनी आँखों पर पट्टी लगा ली, तो मन में विचार आया वह अभी भी देख रहा है। ऊपर वाला भी और भीतर वाला भी।'
वह युवक फ़कीर के पास पहुँचा। फ़कीर ने कहा, तुम ही योग्य हो, तुम्हारा स्वागत है, साधना के लिए जिसे 'स्वयं' दिखाई देता है, उसे वह' उपलब्ध होता है।
माना दुनिया की आँखों में तो धूल झोंक सकते हो, पर याद रखना लाख कोशिश के बावजूद खुद की आँखों में धूल नहीं झोंक पाओगे। उस परमत्तत्त्व को धोखा नहीं दे पाओगे। एक दूसरे को धोखा दे सकते हो लेकिन स्वयं को कब तक धोखा दोगे? हमारे साथ अब तक यही होता आया है। हम सोचते हैं बंद कमरे में कोई गलत कार्य करेंगे तो उसे कौन देख पाएगा? पर इस सत्य को नहीं भूलना चाहिए कि हमारे भीतर जो सूक्ष्म तत्त्व है, वह परमात्मा का ही स्वरूप है।
तुम्हारे अस्तित्व में जो आता है, सत्ता है, वही तो परमात्म-तत्त्व की आभा है। व्यक्ति को यह सत्य समझ लेना चाहिए कि बाहर जो दिखाई दे रहा है वह अचेतन है, जड़ है, पुद्गल है। अगर कहीं चेतना, प्राण, स्पंदन या जागृति है, तो स्वयं के अन्तस्तल में । स्पंदनों और कृत्य की अनुभूति अन्तस्तल में है। तुम्हारे पाप और पुण्यों के ज्ञाता तुम स्वयं ही हो। छिपकर न पुण्य कर सकते और न ही पाप।
ध्यान का कार्य है तुम्हारी अन्तश्चेतना को जाग्रत करना। सारी दुनिया को धोखा दे पाओगे पर स्वयं तो उसके दृष्टा रहोगे। दूसरे को ढूँढ़ने के लिए तो प्रकाश की
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