Book Title: Dhyan Yog Vidhi aur Vachan
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 108
________________ पर मैं तो कहूँगा कि यदि समर्पण के मार्ग से भी हम गंतव्य को पाना चाहते हैं तो भी बोधपूर्वक / होशपूर्वक हमारे क्रिया-कलाप होने चाहिये । बिना बोध के जीवन का रूपांतरण सम्भव नहीं है। एक बँधी- बँधायी लीक तक हमारी गति हो जायेगी, वहाँ प्रगति की सम्भावना कहाँ है? महावीर के अनुसार अगर हमने बेहोशी में कोई क्रिया या कर्म किया तो उसमें अयतना होगी, अविवेक होगा । वहाँ फूल का खिलना तो हो जाएगा पर उसमें महक नहीं होगी। मेरे देखे, धर्म अपनी मूल अस्मिता को तभी प्राप्त कर पाता है जब वह बोधपूर्वक हो, विवेक और होशपूर्वक हो। इसलिए वे तो जैन हैं ही जो 'जिन' में आराधना / उपासना करते हैं, वे भी जैन हैं जो 'जयणा' ( यतना) से जीते हैं। हकीकत में व्यक्ति 'जिन' तभी बन पाता है जब वह जयनायतना से जीता है । शिविर में मेरा प्रयास आपको किसी धर्म का अनुयायी बनाने का नहीं रहा । मेरा प्रयास रहा हमारे निज में छिपे जिनत्व का हमें अहसास करा दूँ । ध्यान हमें जिनत्व की आभा देगा। स्वयं से साक्षात्कार कराएगा । सत्य का बोध कराएगा । ध्यान हमारी बेहोशी तोड़ेगा और होश का दीप देगा। धर्म होश में है, यतना में है, विवेक में है । महावीर से जब शिष्यों ने पूछा कि हम कैसे खाएँ, कैसे सोयें, कैसे बोलें, कैसे उठें-बैठें ताकि पाप-कर्म का बन्धन का बन्धन न हो । महावीर ने एक ही शब्द कहा यतना विवेक । चाहे तुम सोओ, बैठो, उठो, बोलो कुछ भी करो पर यदि यतना - जागरूकता का दीप, विवेक की ज्योति तुम्हारे पास है तो हर अंधकार को चीरते हुए तुम आगे बढ़ जाओगे । अगर यतना से संसार में भी जी रहे हो तो चलेगा और अगर अयतना से संन्यास में भी जीये तो भी घातक है । बोधपूर्वक अगर बाजार में भी बैठे हो तो बाजार भी तुम्हारे लिए मंदिर बन जायेगा और बेहोशी में मंदिर को भी हम बाजार बना देंगे । - महावीर के अनुसार मुनि का साधना- - सूत्र ही यह है कि वह बोधपूर्वक जीये । बेहोशी में सौ वर्ष भी जीये तो क्या जीये, न जीकर कुछ पा सके, न मरकर । और होशपूर्वक अगर एक दिन भी जी गये तो बहुत है, जीते-जी उपलब्धिपूर्ण जीये और मरकर भी अमर हो गये । महावीर अप्रमत्तता के पूर्णत: पक्षधर हैं । साधना - मार्ग में प्रमत्तता सबसे बड़ा पाप है। महावीर का जो आत्म-विकास का सिद्धान्त है, जब तक व्यक्ति प्रमत्त रहेगा, तब तक इस सिद्धान्त का सौ फीसदी अनुगमन नहीं कर पाएगा। अप्रमत्तता साधना है, वहीं प्रमत्तता विराधना । जाग कर जीना धर्म है और सोकर जीना अधर्म है होश पुण्य है और बेहोशी पाप है । अगर प्रमत्त अवस्था में मंदिर भी पहुँच जाओगे, - I I Jain Education International For Personal & Private Use Only | 107 www.jainelibrary.org

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