________________
यमुना के पास पहुंची और कहा कि अगर आज कृष्ण ने रास-लीलाएँ न की हों तो हमें मार्ग दो। आश्चर्य यमुना दो भागों में विभक्त हो गई। बीच में मार्ग बन गया। यह अनासक्त योग है। ___मैं नहीं जानता यह कथानक कहाँ तक सही है। लेकिन मैं तो यही कहना चाहूँगा कि जैसे दुर्वासा ने भोजन करके भी उपवास कर लिया, कृष्ण गोपियों के साथ रासलीला करके भी उनसे उपरत रहे, उसी तरह हम भी जीवन जीते हुए भी संसार में लिप्त न हों। मुझे आपके साथ जीना है, रहना है, लेकिन जब मैं अपने मैं लौटँगा तो सिर्फ अपने आप में रहँगा। ध्यान का यही परिणाम है कि वह आपको अपने में लौटा लाता है। ध्यान निज स्वरूप को उपलब्ध करने की प्रक्रिया है।
ध्यान न मंत्र है, न तंत्र है और न यंत्र है। जहाँ व्यक्ति इन तीनों से मुक्त हो जाता है मन से, तन से और विचार से वहीं से वह ध्यान में प्रवेश करता है। ध्यान की यह सहज उपलब्धि है कि तुम जब जो सोचना चाहो बस वही सोचो। मनुष्य की यही कमजोरी है कि वह जब जो सोचना चाहता है सोच नहीं पाता। ध्यान यह कार्य करता है कि हम जहाँ हैं वहीं अपने चित्त को रख सकते हैं, उसे ला सकते हैं, निर्देशित कर सकते हैं। जिसका चिन्तन करना चाहें उसी का चिन्तन करें, यह ध्यान की उपलिब्ध है। जब खाना बनाएँ तो सिर्फ खाना बनाएँ, व्यवसाय करें तो सिर्फ व्यवसाय। वहाँ मकान और बच्चे न आएँ। अब ध्यान में हैं तो सिर्फ ध्यान में हैं कोई दूसरा तत्त्व प्रविष्ट नहीं होना चाहिए।
एक बात मैं और कहना चाहूँगा, ध्यान के मार्ग में अगर धैर्य साथ रहा तो धीरेधीरे बड़ी उपलब्धि यह होगी कि आत्मगत भाव में मस्त हो जाओगे । संसार तो तब भी वैसा का वैसा ही रहेगा। वस्तु और विषय भी वे ही रहेंगे। जो बदलाव होगा वह व्यक्ति की चेतना में होगा। सब कुछ वैसा ही, परन्तु भीतर की चेतना रूपान्तरित।
वस्तु और विषय का गुण-धर्म, ज्ञानी और अज्ञानी के लिए एक-सा बना रहता है। ऐसा नहीं होता कि ज्ञानी के लिये गुण-धर्म कुछ और हो और अज्ञानी के लिये कुछ और, पर जो अन्तर से जागरूक हो चुका है, जिसने जीवन में ध्यान की ज्योति लगा ली है वह न तो कभी विषय में खोता है, न ही वस्तु में । वह सदा आत्मगत भाव में रहता है। जब चेतना स्वस्थ और अन्तर्मुखी हो जाती है तब जड़ पदार्थ, पर-पदार्थ उसे प्रभावित नहीं कर पाते। __कभी आपने सोचा कि हमारी चेतना को सबसे ज्यादा प्रभावित पर-पदार्थ करते हैं। मन और विचारों की चंचलता भी पर-पदार्थों में जीने का परिणाम है और परिणामतः हमारी अपनी मालकियत हमारे हाथ से छिटक जाती है और हमारे
87
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org