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शिविर में आप लोगों के लिए मेरा प्रमुख संदेश यही है कि आप अपनी दृष्टि को विराट करने का प्रयत्न करें। आप प्रतिदिन सुबह प्रार्थना में गाते हैं 'मानव स्वयं एक मंदिर है।' इसे सामान्य कविता या प्रार्थना न समझें, यह गहरा सत्य है। अगर हमारी दृष्टि विराटता के सूत्र पकड़ ले तो धरती पर जितने मनुष्य हैं, सब चलते-फिरते मन्दिर हैं। पृथ्वी तीर्थ है। और मनुष्य की अन्तरात्मा में छिपी चेतना परमात्मा है। इसीलिए तो कहा गया है, परमात्मा सार्वभौम और सार्वकालिक है। __ जीसस ने कहा, तोड़ो चाहे जिस पत्थर को तुम उसमें मुझे पाओगे, चाहे जिस पत्थर को उठा लो उसमें मुझे ही छिपा पाओगे। सर्वत्र वही है। पानी तो आखिर पानी है चाहे वह समुद्र में हो, नदी में हो, तालाब में हो। चाहे लहर हो या जल-बूंद दोनों में जल की उपस्थिति है। लेकिन हम आकार में उलझ जाते हैं। सागर का आकार विशाल है और गाँव का तालाब छोटा-सा । कैसे स्वीकार करें। दोनों एक हैं । कहाँ सागर, कहाँ घर का कुआँ। मेरे प्रिय आत्मन! आकार को देखकर भ्रांति पैदा मत करो। आकार में भले ही भेद हो, फिर भी दोनों आकारों में जो विराजमान है, वह निराकार है। इसलिए कुएँ में जो जल है और सागर में जो जल है- अलग-अलग नहीं है । यह यथार्थ का गणित है । इसे हर कोई नहीं समझ पाएगा। ईशावास्योपनिषद में कहा है, 'पूर्णात्पूर्णमुदुच्यते।' पूर्ण में से अगर पूर्ण निकाल लें तो भी पीछे पूर्ण ही बचेगा। यह पारलौकिक गणित है। इस गणित के जगत में बूंद और सागर बराबर है। विज्ञान के अनुसार 'एच टू ओ' उदजन और अक्षजन दो वस्तुएँ मिलकर जल बँद बनती है। दो हिस्से 'एच' के एक हिस्सा 'ओ' का। सागर का भी तो यही राज है। सागर आखिर है क्या? असंख्य-अनन्त बूंदों का सम्मेलन है, अगर बूंद-बूंद को अलग कर दो तो सागर सागर नहीं रह पाएगा। जैसे आप लोग यहाँ बैठे हैं तो कहेंगे एक समाज बैठा है, पर आखिर यह समाज क्या है? व्यक्तियों का जोड़ बस। खोजने जाओगे तो समाज कहीं मिल नहीं पाएगा। जब भी मिलेगा, व्यक्ति मिलेगा। __ व्यक्ति सत्य है, समाज तो केवल संज्ञा है। बूंद सत्य है, सागर तो केवल संज्ञा है। सागर, सरोवर, सरिता सब में पानी एक है, बड़ी से बड़ी लहर हो या एक जलबूंद कोई फ़र्क नहीं, सबका स्वभाव एक है। परमात्मा भी सर्वत्र है वहाँ भी, यहाँ भी, मुझमें भी, आपमें भी। ___ ध्यान का कार्य जीवन में उस बीज का प्रस्फुटन करना है कि वह अपनी विराटता धारण कर सके। हमारी धारणाएँ, भावनाएँ इतनी संकुचित हैं कि चाहते हुए भी वह बीज फूट नहीं पाता। हर इंसान के भीतर परमात्मा का बीज छिपा हुआ है, पर मनुष्य न तो उस बीज को पहचान पाता है और न उसमें से परमात्मा-स्वरूप को अंकुरित कर पाता है। वह बीज सोया ही रह जाता है और आखिर हमारा धरती से प्रयाण हो
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