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का निर्माण होता है और न संचालन ।
जब सम्पूर्ण अस्तित्व हमारा सहयोगी है, तब अपनी ऊर्जा को इस शरीर तक ही सीमित क्यों रखें। अपनी ऊर्जा की धारा को, उसके तेज को, अपनी आत्म-चेतना को सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ विराट होकर एकाकार हो जाने दें। ध्यान का एक उद्देश्य यह भी है कि हमारी ऊर्जा जो इस छोटे-से शरीर में समाई हुई है, वह अस्तित्व की विराटता के साथ तादात्म्य स्थापित करे ।
यह न समझना कि ध्यान से सिर्फ हमारे शरीर की शक्ति या ऊर्जा ही जाग्रत हो रही है बल्कि जब हम ध्यान से ऊष्ण होते हैं तो हमारा संबंध सूर्य - रश्मियों से जुड़ जाता है। हमारी श्वास के साथ दुनिया भर की हवाएँ संपर्क रखती हैं। हमारी पाचनशक्ति की अग्नि से सृष्टि की अग्नि का सम्पर्क है, हमारे रुधिर से जो जल प्रवाहित हो रहा है, उसका सम्पर्क सृष्टि की अथाह जल राशि से जुड़ा हुआ है । इसलिए अपनी ऊर्जा को शरीर तक सीमित मत रहने दो। इसे अस्तित्व के अंतिम बिंदु तक फैल जाने दो । अपने आपको विराट हो जाने दो। सृष्टि के पाँचों तत्त्व हम में तदाकार हो जाएँ। यानी इस तरह हमारी आत्मा अस्तित्व की विराटता को उपलब्ध कर लेगी।
ध्यान के माध्यम से हृदय - कमल को खिलाकर, उस परम तत्त्व, परम ज्योति को आविर्भूत करने का प्रयास करते हो इसका अर्थ क्या हुआ ? यदि व्यक्ति का इन हवाओं के साथ, अग्नि के साथ संपर्क नहीं होता तो अनथक प्रयास करने के बाद भी उस परमात्म-तत्त्व को उपलब्ध नहीं कर पाते, क्योंकि आपकी आवाज में वह शक्ति नहीं है कि उस ध्वनि को अनन्त आकाश में पहुँचा सको। लेकिन हमारा सम्पर्क हवा के साथ है और हम हमारी ध्वनि को जहाँ हम चाहते हैं वहाँ पहुँचाती है । वायुअग्नि, आकाश, पृथ्वी- ये सब जीवन के सहायक तत्त्व हैं। हम ध्यान के द्वारा इन्हीं सहायक तत्त्वों से तदाकार होने का प्रयास करते हैं ।
आपको ध्यान में श्वास के साथ ॐ का रमण करवाया जाता है, क्यों? क्योंकि हवा जीवन का तत्त्व है, यह पर - पदार्थ नहीं है । शरीर और आत्मा दोनों का मिलन सेतु पवन है, श्वास है। जिस दिन यह सेतु विच्छिन्न होता है, शरीर और आत्मा का सम्पर्क भी समाप्त हो जाता है ।
कबीर ने कहा कि ध्यान के द्वारा व्यक्ति अपनी बूँद को सागर में समाविष्ट कर लेता है।‘हेरत-हेरत हे सखि रह्या कबीर हिराई, बूँद समानी समुद में सो कत हेरत जाई'- बूँद समुद्र में समा गई। लेकिन इसका उलट भी होता है। यदि तुम ध्यान में रमण करने लगे, ध्यान के सागर में डुबकी लगाने लगो, तो पाओगे समुद्र ही बूँद में समा गया- समुद्र समाना बूँद में। अपनी बूँद को तो सागर में हरेक विलीन कर
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