________________
के, एक सप्ताह के और एक दिन के थे। उसके भी पार जाओगे? उसके पार तुम्हारे जीवन का अस्तित्व इस सृष्टि में कहीं छिपा हुआ था। उसके भी पार जाना चाहोगे? जब तुम अपने अस्तित्व को पाने के लिए इस सृष्टि के किसी स्रोत के माध्यम से बाहर निकलने का प्रयास कर रहे थे। उस क्षण तुम सिर्फ अणुरूप थे। जैसे-जैसे उस अणु को ऊर्जा का सामीप्य मिला, वही अणु विराटता को उपलब्ध होता रहा। अणु ने धीरे-धीरे विस्तार पाना शुरू किया। ऊर्जा की सघनता ने दो रूप दिये। कोई नर के रूप में और कोई नारी शरीर में विकसित हुआ।
इस शरीर का, जीवन का पूरा ताना-बाना उसी ऊर्जा की सघनता का परिणाम है। इसीलिए मैंने कहा जहाँ ऊर्जा का विस्तार होता है वहाँ संसार का निर्माण होता है
और जब ऊर्जा सघन होती है तो जीवन की निर्मिति होती है। आपने पाया होगा कि एक ही शक्ति अनन्त में बँट जाती है। हम अपने दैनिक जीवन में विद्युत का उपयोग करते हैं। शक्ति का स्रोत एक है और उपयोग अनेक।वही धारा कहीं रोशनी उत्पन्न करती है, कहीं रेडियो में से ध्वनि बनकर आती है, वही टी.वी. में दृश्य दिखाती है। कभी फ्रिज में ठंडक और कभी हीटर में गरमाहट लाती है। फ्रिज में ठंडक और हीटर में गरमाहट ये दोनों ही विद्युत की ऊर्जा के दो रूप हैं। एक ही ऊर्जा विभिन्न रूपों में बँट जाती है।
ऐसा न सोचें कि इस शरीर के निर्माण में, रख-रखाव में केवल हम ही सहायक हैं, ऐसा नहीं है। यह तो हमारी संकुचित दृष्टि हो गई है कि शरीर के निर्माण का श्रेय केवल माता-पिता को दे दिया है या उसके संचालन का श्रेय स्वयं को, अपने परिवार
और बाह्य स्थितियों को दे दिया। इस सृष्टि के सम्पूर्ण तत्त्व, सारे बिन्दु मिलकर हमारे शरीर का निर्माण और उसका संचालन करते हैं। हम जानते हैं सूर्य प्रतिदिन निकलता है और अस्त होता है। यदि यह निकलना बंद कर दे, तो हम ठंडे पड़ जाएंगे और इसी तरह सदैव जलता रहे तो हम भी जल जाएँगे। प्रकृति का सन्तुलन हमारे अस्तित्व में सहयोगी है। सूर्य की रश्मियाँ भी हमारे शरीर के विकास में सहयोगी हैं । निरन्तर बहती हवाएँ हमें प्राण-वायु प्रदान कर रही हैं। आकाश जो देख रहे हो, इसका अर्थ समझते हो, सृष्टि में जहाँ-जहाँ रिक्तता है, खालीपन है, अवकाश है, वहीं आकाश समाया हुआ है।
मेरे हाथ की इन दो अंगुलियों को देखते हो? ये हथेली पर तो टिकी हैं, पर इन दोनों के मध्य जो आकाश'अवकाश' है वह भी आधार है। इस मध्य की रिक्तता का नाम ही आकाश है। इसलिए शरीर के निर्माण में प्रकृति के पाँचों तत्त्वों- आकाश, जल, अग्नि, पृथ्वी और पवन, सभी की आवश्यकता पड़ती है। इनके बिना न शरीर
50
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org