Book Title: Dhyan Yog Vidhi aur Vachan
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 48
________________ आपसे उठाओ। आखिर इसका क्या कारण है कि मैं दुःख से मुक्त होना चाहता हूँ और आनंद को उपलब्ध करना चाहता हूँ, क्यों? क्योंकि दु:ख विजातीय है और आनन्द तुम्हारा स्वरूप है। इसलिए सुख की हमें चाह करनी पड़ती है, पर आनन्द की तो चाह भी नहीं करनी पड़ती, वह तो हमारा स्वभाव है। जो स्वभाव को उपलब्ध हो चुका है, वह आनन्द को उपलब्ध हो चुका। कभी सोचा, आदमी को अंधकार प्रिय क्यों नहीं लगता? क्योंकि प्रकाश हमारा स्वभाव है, उज्ज्वलता हमारा स्वरूप है, हम विषपायी नहीं हैं, हम अमृतवाही हैं। आत्मा अमृत-धर्मा है। विश्लेषण करें स्वयं का, अपने जीवन का। इस विश्लेषण से ही सही जिज्ञासा जग पाएगी। पर हमारा चिंतन मात्र बाह्य परंपराओं से जुड़ा रह जाता है, परिणाम अध्यात्म की आत्मा का हम स्पर्श नहीं कर पाते हैं। केवल ग्रंथों को रट लेने से क्या हो जायेगा? ग्रंथों की गाथाओं को तो तुम याद कर लोगे, पर भीतर की ग्रंथियाँ न खुल पाईं तो क्या लाभ? तुम निर्ग्रन्थता मात्र ग्रंथों से आत्मसात् नहीं कर पाओगे। तुम आत्म और परमात्मा पर जीवन भर प्रश्न उठाते रहोगे, पर उन्हें उपलब्ध न कर पाओगे। प्रश्नों से कभी परमात्मा मिला है? वह तो तब मिल पायेगा, जब प्रश्न तिरोहित हो जाएँगे और प्रेम अवतरित हो जायेगा। प्रश्नों में जी-जीकर तुम पंडित हो जाओगे, पांडित्य उपलब्ध कर लोगे, पर प्रज्ञा का जागरण तो तब भी नहीं हो पायेगा। अपना उद्देश्य पंडित बनाना नहीं है, प्रज्ञा का जागरण करना है। यह प्रज्ञा-जागरण का ही प्रभाव है, अन्तर्निर्मलता का ही परिणाम है कि अतिमुक्त सचित्तजल छूकर भी परमात्मा को पा गया और शेष संत छोड़कर भी उसे न पा उसे।कुरगुड़क मुनि के बारे में सना होगा कि वे संवत्सरी के दिन, जब प्रायः सारे जैन उपवास करते हैं, उस दिन भी वे भोजन करके परम ज्ञान को पा गये । इलायची कुमार नृत्य-प्रदर्शन करते हुए, डोरी पर नाचते-नाचते ही परम ज्ञान को पा गये। अब जरा तुम सोचो कि हमारे जीवन में चूक कहाँ हो रही है । चूक, जीवन की सबसे बड़ी चूक तो यही है कि हम केवल बाहर तक ही सिमटकर रह गये हैं। अन्तर-अस्तित्व की ओर हमारी नजर न गई। बाहर की उज्ज्वलता तो उपलब्ध कर ली, पर भीतर की कलुषता से मुक्त नहीं हो पाए। वह बाहर की उज्ज्वलता किस काम की, जिसका अतरंग कल्मष है । साधना के नाम पर धूप में खड़े हो जाओगे, पर मन छाँव चाहेगा। तुम उपवास करोगे, पर मन भोजन चाहेगा। शरीर क्या कर रहा है यह बात गौण है, पर चित्त क्या कर रहा है यह बात मुख्य है। यह ध्यान-शिविर हमारे चित्त की परतों का उद्घाटन करने के लिए ही है। हमें बाहर से मुक्त करके आत्म-दर्शन कराने के लिए है। अपने उत्साह को बढ़ाना। 47 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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