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करें,
अन्तस का
स्पर्श
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जीवन एक तलाश है; सुख की तलाश, शांति की तलाश, आनन्द की तलाश! मनुष्य यह तलाश जगत में करता है। अपने से हटकर और अपने को खोकर औरों में रहता है। अपनी इस यात्रा में मनुष्य किसी हद तक सुख को तो उपलब्ध कर लेता है, लेकिन शांति और आनन्द से वंचित रहता है। स्वभाव से हटकर विभाव में जीने का परिणाम यह आता है कि विभाव-दशा में जीते हुए वह अपनी स्वभाव-दशा को ही विस्मृत कर बैठता है और विभाव को ही स्वभाव मान लेता है। इसका परिणाम यह होता है कि जीवन 'जीवन' से छूटकर मात्र संसार से बँधा-बँधाया रह जाता है। जो इन्द्रिय-गोचर होता है, बस उसी को प्रत्यक्ष मानकर सत्य स्वरूप समझ लिया जाता है। __ जैन-परम्परा में ज्ञान के दो स्वरूप निर्धारित किये गये हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष। इनका अर्थ जानकर कुछ अजीब लगेगा, लेकिन यह सच्चाई है। जैन परंपरा में परोक्ष ज्ञान वह है जो इन्द्रियजन्य है और प्रत्यक्ष-ज्ञान वह है जो आत्मजन्य है। जो ज्ञान इन्द्रियों की सहायता से प्राप्त होता है, महावीर ने उसे परोक्ष माना है क्योंकि इन्द्रियाँ किसी भी वस्तु का सर्वांगीण सर्वेक्षण नहीं कर सकतीं। इसलिए वह अधूरा
और असत्य-मिश्रित हो सकता है। जो ज्ञान इंद्रियातीत होता है, महावीर ने उसे प्रत्यक्ष कहा है। उस ज्ञान में साधक इन्द्रियों से मुक्त होकर सीधा आत्मा से संपर्क स्थापित कर लेता है। त्रैकालिक सत्य उसकी दिव्य चेतना में प्रतिबिंबित होना
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