Book Title: Dhyan Yog Vidhi aur Vachan
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 22
________________ पार मैं क्या हूँ? मन के पार मेरा क्या अस्तित्व है? देह वस्त्र की भाँति है। वह कभी भी फट सकता है। अगर हमने वस्त्र को भी शाश्वत या अभिन्न मान लिया है तो बात और है। वस्त्र पहनने का मतलब यह नहीं कि हम केवल वस्त्रों तक ही सीमित रह जायें, हमारा अस्तित्व उसमें छिपकर, दबकर रह जाये, जैसी गंदी काया पर उजले वस्त्र शोभा नहीं पाते हैं, वैसे ही अपवित्र आत्मा पर उजली काया शोभा कैसे पा सकती है। हम केवल बाहर के सौंदर्य तक सीमित रह जाते हैं, बिना यह सोचे कि इसके कारण हमारा आंतरिक सौंदर्य समाप्त होता जा रहा है। हम पहचानें अपने 'मेकअप' के पीछे की परतों को। कहीं हमारा अन्तरसौंदर्य, आन्तरिक प्रतिभा दबाकर तो नहीं रखी जा रही है। मकान जल रहा है और हम सुरक्षित बच गये हैं तो समझो कुछ नहीं जला है। शरीर भी मकान की तरह है। हजार दफा इसके मृत्यु के द्वार से गुजर जाने के बावजूद आत्मा की शाश्वतता पर कोई आँच नहीं आती। मैं देह हूँ'- इस भाव के कारण हम चेतना का स्पर्श नहीं कर पाते हैं। शरीर और आत्मा- इन दोनों के बीच एक फासला है, लेकिन यह हमारा अज्ञान है कि इसे हम समझ नहीं पाये हैं। दोनों में एकरूपता को कायम किये चल रहे हैं। नारियल का गोटा और उसकी ठीकरी दोनों भले ही एक दूसरे से सटे हुए हैं, लेकिन इसके बावजूद दोनों का अस्तित्व अलग-अलग है। गोटा अलग है और ठीकरी अलग है। आत्मा का स्वभाव भी ऐसा ही है। भले ही वह देह से जुड़ी है, इसके बावजूद वह ठीकरी और गोटे की तरह देह से अलग है। मैं अलग हूँ और शरीर अलग है, इसका सतत स्मरण जीवन में होना चाहिए, प्रत्येक घटना-दुर्घटना के साथ, प्रत्येक कृत्य के साथ। अगर निरंतर हमारे भीतर यह बोध रहता है कि मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं हैं तो देह पर आने वाली किसी भी अनुकूलता-प्रतिकूलता का प्रभाव आत्मा पर नहीं आ सकता। हमारे यहाँ कहते हैंविवेक से चलो। इसका अर्थ केवल इतना ही नहीं होता कि कीड़े-मकोड़ों को बचाकर चलो। हमें इसका अर्थ-विस्तार करना चाहिए। विवेक से चलने का विशेष अर्थ होता है, शरीर चल रहा है, पर मैं स्थिर हूँ। मैं साक्षी हूँ, दृष्टा हूँ। जो साक्षित्व में नहीं है, मनोमुक्त नहीं हो पाया, वह भले ही खड़ा रहे पर चल रहा है। लेकिन जो दृष्टा-भाव में उतर आया है, वह भले ही चलता रहे, पर इसके बावजूद वह स्थिर है। हम आदर्श-परुषों के विचारों का मात्र संग्रह न करें। आप देखते हैं कि कई लोग यहाँ बैठे डायरी में नोट्स लिख रहे हैं । मात्र अच्छे विचारों के संग्रह से होगा भी क्या? - 21 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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