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शिक्षा दी जाती है, क्योंकि स्वर्ग में अप्सरा मिलेगी। अपरिग्रह से स्वर्ग की अपार संपदा और वैभव के मालिक बनोगे। मनुष्य के प्रत्येक कृत्य के साथ प्रलोभन की बातें जुड़ गईं, और इसका परिणाम यह हुआ कि जीवन के लिए कोई 'त्याग' नहीं हुआ। अगर त्यागा भी तो कल्पित सुख पाने के लिए या कल्पित नरक से बचने के लिए। जीवन का कहीं कोई आविष्कार नहीं हो पाया।
बीसवीं शताब्दी में भारत में दो महापुरुष हुए हैं। एक गांधी और दूसरे अरविन्द। गांधी का दर्शन रहा कि एक-एक व्यक्ति को जगाओ, प्रत्येक को सचेतन करो, हर एक के अंदर पुण्य के भाव आग्रत करो। अरविन्द ने कहा, कुछ चुने हुए लोगों को जगा दो। वे गिने-चुने लोग ही सारी धरती को प्रकाशवान कर देंगे। दीये से दीया जले, एक बात । दीयों से दीये जले, यह ज्यादा बेहतर। अरविन्द की बात ज़्यादा सटीक है। तुम तो कुछ ज्योतियाँ जला दो क्योंकि हरेक को जाग्रत करना संभव नहीं। उसमें भी यह भारत, जहाँ भले ही ध्यान के, अध्यात्म के, धर्म के बीज अंकुरित हुए हों लेकिन मेरे देखे आज की तारीख में देशी आदमी की बनिस्बत विदेशी आदमी ध्यान को जल्दी आत्मसात कर लेता है।
मैंने पाया है कि किसी भारतीय को छह घंटे भी ध्यान के बारे में समझा दो, वह आधा घंटा भी ध्यान नहीं कर पाएगा, लेकिन किसी विदेशी को आधा घंटा ध्यान के बारे में बताने पर वह अपना पूरा जीवन ध्यान को समर्पित कर देता है। आत्मजिज्ञासा से अन्तर-जगत में उतरोगे तो शांति को, प्रकाश को पा सकोगे अन्यथा मुर्छा में पड़े रहोगे। मूर्छा से अमूर्छा में आओ तो ही दीप ज्योतिर्मय हो सकेंगे। मेरी यह आकांक्षा नहीं है कि मैं लाखों दीये जलाऊँ, मैं इस धरती से जाते-जाते अगर सौ दीपक प्रज्वलित कर पाया, तो मेरी जीवन-साधना मानवता के लिए सफल हुई मानो।
कहते हैं कि विवेकानन्द जब मृत्यु-शय्या पर थे, तब उनके मन में एक शिकायत थी कि मैंने अपने जीवन में भक्तों की भीड़ तो जुटा ली, पर वे दीप न जला पाया, जो मेरी ज्योति की पहचान बन सकें। विवेकानन्द के हृदय में यह टीस-कसक रह गई कि वे सौ दीपक भी प्रज्वलित न कर पाए। उन्होंने अपनी डायरी में लिखाजो व्यक्ति सौ दीपक भी जलाकर चला जाएगा, उससे भारत प्रकाशित हो जाएगा। यह उनके अंतिम वचन थे। ऐसे ही, मैं तो सिर्फ सौ व्यक्तियों की चेतना जाग्रत करना चाहता हूँ और अगर इतना कर पाया तो जीवन की साधना धन्य हो जाएगी।
और फिर, मैं अपने जीवन में जीवन के बारे में सोचता हूँ, उसे जानने का प्रयास करता हूँ, मृत्यु के बारे में नहीं। क्योंकि मेरा अटल विश्वास है कि जीवन की कभी मृत्यु नहीं हो सकती। अगर जीवन की मृत्यु होती है, तो अमृत-पुरुषों के अनुभव
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