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उड़िये पंख पसार
मन से अबूझ है । वह अन्तर्मन से रुग्ण है।
स्वयं को जानने और समझने का हमारे पास समय ही नहीं है । हम औरों को तो जान लेते हैं, पर स्वयं से अनजान रह जाते हैं । औरों की किताबें पढ़ लेते हैं, पर अपनी किताब अनपढ़ी रह जाती है । दूसरों के मन में हमारे प्रति क्या भाव हैं यह तो जाँच लेते हैं, लेकिन स्वयं के मन से हम अनचीन्हे ही हैं। मन के उलझाव भी स्वयं के स्वार्थ, स्वयं के विकार और स्वयं की कामनाओं के ही हैं । जब मन के हाथ में मनुष्यत्व आ जाएगा, तब मन मनुष्य का वरदान हो जाएगा। मन स्वयं परमात्मा का मंदिर हो जाएगा। हम पढ़ते और सुनते आ रहे हैं कि भगवान अवतार लेते हैं पर प्रश्न है कहाँ? भगवान अवतार लेते हैं मनुष्य के निर्मल हो चुके मन में । कहते हैं कृष्ण गोपिकाओं के साथ रास रचाते हैं । आज तो यह सब स्वप्न-सा लगता है । हमारे विकलांग और विकृत मन में वह पवित्रता और पात्रता नहीं है कि हम प्रभु को निमंत्रण दे सकें कि वह हमारे अन्तर्मन में विहार करे, हमारे साथ अठखेलियाँ करे।
माना, दुनिया का नक्शा बहुत बड़ा है । इसमें अनगिनत देश, राष्ट्र और कौमें हैं, लेकिन मनुष्य का नक्शा बहुत छोटा है, इसका अत्यंत सीमित संसार है । 'वसुधैव कुटुम्बकम्' हमारे स्वार्थों और घरों में सिमट गया है। हम अपनी चारदीवार को लाँघ ही नहीं पाते । शायद जिसे हम पशु कहकर हेय-तुच्छ समझते हैं, उसमें भी मानवता के चिह्न मिल जाएँगे, पर मनुष्य कितना छोटा हो रहा है, शायद इस ओर हमारा ध्यान नहीं है। एक पशु में कितनी ममता और सहानुभूति होती है । इसके कई मर्तबा उदाहरण देखे जा सकते हैं । कल ही संबोधि-धाम की ओर जाते हुए मैंने देखा कि एक कुतिया अपने बच्चों के साथ अन्य मृत कुतिया के पिल्लों को भी दुग्धपान करा रही थी। कहीं कोई अन्यथा भाव नहीं, बल्कि निश्चितता कि वह दूसरों की भी व्यवस्था कर रही है । क्या हमारे अंदर ऐसी इंसानियत है कि हम पड़ोसी का हित साध सकें । हम अपने स्वार्थ के साथ दूसरों का स्वार्थ तो साध सकते हैं, लेकिन अपने हित में पड़ोसी का हित स्मरण रख पाते हैं ? हमारा संसार बहुत ही छोटा है । करुणा और ममता केवल अपनों पर उमड़ती है । अपने भी कौन, जिनसे संसार ने खून का संबंध दिया है और बहुत हुआ तो चमड़ी या दमड़ी का सौन्दर्य आकर्षित कर लेता है।
पशु तो अपने से अलग जाति के जीव पर आक्रमण करता है, पर यहाँ तो मनुष्य, मनुष्य पर ही आक्रमण कर रहा है। उसका व्यवहार पशु से भी बदतर होता जा रहा है । उस मीनार पर बैठे कबूतर की ओर ध्यान दें। ये परिंदे तो कभी मंदिर पर भी
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