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धर्म तुम हो
आपके डर के कारण-सत्य निकल गया उसके मुंह से-कहा, आपके डर के कारण। उसने कहा, यह बात ही गलत है! प्रजा को प्रेम करना चाहिए राजा को, डरना नहीं चाहिए। और उसने कोड़े फटकारे और कोड़े फटकारकर वह बोला कि बोल, अब प्रेम करता है कि नहीं? उसने कहा, महाराज, करता हूं, प्रेम तो पहले ही से करता हूं।
अब यह प्रेम कोड़ों के बल पर अगर उपलब्ध होता हो, तो कैसे प्रेम हो सकेगा? लेकिन अब तक न्याय के नाम पर बलशाली का न्याय चल रहा है। अन्याय का अर्थ ही यह है कि तुम कमजोर हो, तो तुमने जो किया, वह अन्याय है। तुम अगर बलशाली हो तो तुमने जो किया, वह न्याय।
समत्व के आधार पर न्याय होना चाहिए। समता को उपलब्ध व्यक्ति के द्वारा न्याय होना चाहिए। सिर्फ संन्यासी ही न्यायाधीश होने चाहिए।
'जो समत्व के साथ न्याय करता है, वही धर्म से रक्षित मेधावी पुरुष न्यायाधीश कहलाता है।'
दूसरा सूत्र और दूसरा दृश्यः
एकुदान नामक एक छीनास्रव—आस्रव क्षीण हो गए हैं जिनके-ऐसे अर्हत थे, भिक्षु थे। वे जंगल में अकेले रहते थे। उन्हें एक ही उपदेश आता था-बस एक ही उपदेश, जैसा मुझे आता है-बस रोज उसी को कहते रहते थे। वे उसे ही रोज देते उपदेश को। स्वभावतः उनका कोई शिष्य नहीं था।
हो भी कैसे! कोई आता भी तो भाग जाता, वही उपदेश रोज। शब्दशः वही। उसमें कभी भेद ही नहीं पड़ता था। उन्हें कुछ और इसके अलावा आता ही नहीं था। लेकिन वे देते रोज थे।
कोई आदमी तो उनके पास टिकता नहीं था, लेकिन जंगल के देवता उनका उपदेश सुनते थे। और जब वे उपदेश पूरा करते तो जंगल के देवता साधुकार देकर स्वागत करते थे-साधु! साधु! सारा जंगल गुंजायमान हो जाता था-साधु! साधु! धन्यवाद! धन्यवाद!
एक दिन पांच-पांच सौ शिष्यों के साथ दो त्रिपटकधारी साधु आए, भिक्षु आए। एकुदान ने उनका हार्दिक स्वागत किया और प्रसन्न होते हुए बोले, भंते, आप भले पधारे। मैं एक ही उपदेश जानता हूं, बेचारे जंगल के देवता उसे ही बार-बार सुनकर थक गए होंगे। आज आप लोग उपदेश दें। हम भी सुनेंगे और देवतागण भी आनंदित होंगे। दयावश वे इस बूढ़े के एक ही उपदेश का भी साधु-साधु कहकर स्वागत करते हैं, आप दोनों ज्ञानी हैं, त्रिपटकधारी हैं, आपके पांच-पांच सौ शिष्य हैं, देखें मेरा तो एक भी शिष्य नहीं है-एक ही उपदेश देना हो तो शिष्य कोई बनेगा ही क्यों? बनेगा ही कोई कैसे?
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