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एस धम्मो सनंतनो
अगर तुम हिमालय गए हो तो तुमने इस चिड़िया को सुना होगा। इस दर्द भरी पुकार से हिमालय के सारे यात्री परिचित हैं। घने जंगलों में, पहाड़ी झरनों के पास, गहरी घाटियों में निरंतर सुनायी पड़ता है-जुहो! जुहो! जुहो! और एक रिसता दर्द पीछे छूट जाता है। इस पक्षी के संबंध में एक मार्मिक लोक-कथा है।
किसी जमाने में एक अत्यंत रूपवती पहाड़ी कन्या थी, जो वर्ड्सवर्थ की लूसी की.भांति झरनों के संगीत, वृक्षों की मर्मर और घाटियों की प्रतिध्वनियों पर पली थी। लेकिन उसका पिता गरीब था और लाचारी में उसने अपनी कन्या को मैदानों में ब्याह दिया। वे मैदान, जहां सूरज आग की तरह तपता है। और झरनों और जंगलों का जहां नाम-निशान भी नहीं। प्रीतम के स्नेह की छाया में वर्षा और सर्दी के दिन तो किसी तरह बीत गए, कट गए, पर फिर आए सूरज के तपते हुए दिन-वह युवती अकुला उठी पहाड़ों के लिए। उसने नैहर जाने की प्रार्थना की। आग बरसती थी-न सो सकती थी, न उठ सकती थी, न बैठ सकती थी। ऐसी आग उसने कभी जानी न थी। पहाड़ों के झरनों के पास पली थी, पहाड़ों की शीतलता में पली थी, हिमालय उसके रोएं-रोएं में बसा था। पर सास ने इनकार कर दिया।
वह धूप में तपे गुलाब की तरह कुम्हलाने लगी। शृंगार छूटा, वेश-विन्यास छूटा, खाना-पीना भी छूट गया। अंत में सास ने कहा—अच्छा, तुम्हें कल भेज देंगे। सुबह हुई, उसने आकुलता से पूछा-जुहो? जाऊं? जुहो पहाड़ी भाषा में अर्थ रखता है-जाऊं? सुबह हुई, उसने पूछा-जुहो? जाऊं? सास ने कहा- भोल जाला। कल सुबह जाना। वह और भी मुरझा गयी, एक दिन और किसी तरह केट गया, दूसरे दिन उसने पूछा-जुहो? सास ने कहा-भोल जाला। रोज वह अपना सामान संवारती, रोज प्रीतम से विदा लेती, रोज सुबह उठती, रोज पूछती-जुहो? और रोज सुनने को मिलता-भोल जाला।
एक दिन जेठ का तप-तपा लग गया। धरती धूप में चटक गयी। वृक्षों पर चिड़ियाएं लू खाकर गिरने लगीं। उसने अंतिम बार सूखे कंठ से पूछा-जुहो? सास ने कहा- भोल जाला। फिर वह कुछ भी न बोली। शाम एक वृक्ष के नीचे वह प्राणहीन मृत पायी गयी। गरमी से काली पड़ गयी थी। वृक्ष की डाली पर एक चिड़िया बैठी थी, जो गर्दन हिलाकर बोली-जुहो? और उत्तर की प्रतीक्षा के बिना अपने नन्हे पंख फैलाकर हिमाच्छादित हिमशिखरों की तरफ उड़ गयी।
तब से आज तक यह चिड़िया पूछती है-जुहो? जुहो? और एक कर्कश-स्वर पक्षी उत्तर देता है-भोल जाला। और वह चिड़िया चुप हो जाती है।
ऐसी पुकार हम सबके मन में है। न-मालूम किन शांत, हरियाली घाटियों से हम आए हैं! न-मालूम किस और दूसरी दुनिया के हम वासी हैं! यह जगत हमारा घर नहीं। यहां हम अजनबी हैं। यहां हम परदेशी हैं। और निरंतर एक प्यास भीतर है अपने घर लौट जाने की, हिमाच्छादित शिखरों को छूने की। जब तक परमात्मा में
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