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सत्य अनुभव है अंतश्चक्षु का
'और न आपका एक भी उपदेश ग्रहण कर पाया हूं।'
ये उपदेश ऐसे हैं कि रूपांतरण करते हैं जीवन का। यह ग्रहण करने और न ग्रहण करने की बात भी नहीं है। ये तो जीवन और मरण के प्रश्न हैं। ये तो धीरे-धीरे उतरेंगे, आहिस्ता-आहिस्ता उतरेंगे। और जब तक ये उतर न जाएं, तब तक थोथी बातों में पड़ भी मत जाना। यह मत सोचना कि समझ लिया, कर भी लिया, अब तो बात सब समझ में आ गयी, अब तो हम दूसरों को भी समझाने में योग्य हो गये। ___ यहां कुछ हैं जो पंडित हो गये हैं। अब रोज मुझे सुनेंगे तो बच भी कैसे सकते हैं बिना पंडित हुए। सब बातें उन्हें याद हो गयी हैं, वे दूसरों को समझाने लगे हैं। अभी खुद की समझ में आया नहीं, लेकिन ज्ञान का दंभ भी पैदा हो जाता है। मंदमति तो वे हैं जिन्हें ज्ञान का दंभ हो जाता है।
ठीक कहा कि वर्षों पूर्व आपके साथ प्रथम साक्षात्कार में जो बात आपने कही थी, वह भी समझने को ही पड़ी है।'
जो समझने को निश्चित उत्सुक हुआ है, वह पहली बात भी समझना मुश्किल है। पहला पाठ भी समझना मुश्किल है। और पहला पाठ पूरा हो गया तो सब शास्त्र पूरा हो गया। _ 'ऐसा क्यों है? मैं इतना मंदमति क्यों हं?'
यह प्रश्न भी इसलिए उठता है कि मंदमति नहीं हो। मंदमति कभी नहीं सोचता कि मैं मंदमति हूं। तुमने कभी किसी पागल को सुना है कहते कि मैं पागल हूं? पागल तो जिद्द करता है, कौन कहता है मैं पागल हूं? पागल तो लड़ने-झगड़ने को तैयार रहता है। मैं और पागल! सारी दुनिया होगी पागल। मंदबुद्धि तो सारी दुनिया को मंदबुद्धि कहता है, अपने को छोड़कर। बुद्धिमान ही अपने को मंदबुद्धि स्वीकार करते हैं। यह बुद्धिमानी का लक्षण है।
यह ज्ञान का पहला चरण है, यह पहली किरण है। इस किरण को सम्हालो। इसी किरण के सहारे एक दिन अनंत की यात्रा हो जाती है।
आखिरी प्रश्नः
आपने कहा कि आलस्य से भी मार्ग है। वह कैसे? मैं भी आलसी हूं, कृपाकर थोड़ा प्रकाश डालें।
मैं तो सोचता था कि शीला ही एक दास मलूका है। कोई और भी हैं ! वस्तुतः बहुत होंगे। शीला का परिवार बड़ा होगा। लेकिन खयाल लेने की बात है, अगर सच में ही तुम आलसी हो, तो आलस्य
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