Book Title: Dhammapada 09
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 310
________________ सत्य अनुभव है अंतश्चक्षु क्या कसना, वे तो वैसे ही भटके हैं, उन पर दया करता है। मित्रों को कसता है, पहुंचने के करीब-करीब हो रहे, घर करीब आ रहा, कसावट बढ़ती जाती है, उनकी परीक्षा लेता है, परीक्षण करता है । सो ईश्वर की आवाज ने कहा : बट समटाइम्स दिस इज हाऊ आई ट्रीट माइ फ्रेंड्स । अपने मित्रों के साथ ऐसा व्यवहार कभी-कभी मैं करता हूं। टेरेसा ने कहा, तब सुन लो, तब कोई आश्चर्य नहीं कि तुम्हारे मित्र इतने थोड़े क्यों हैं ! देन नो वंडर यू हैव सो फ्यू आफ देम ! तुम पूछते हो, 'ईश्वर के इतने खोजी कम क्यों हैं ?' इसीलिए, ईश्वर खूब परीक्षा करता है। मगर टेरेसा जैसी हिम्मत की औरत ही ऐसी बात कह सकती है। तो सुन लो, उसने कहा, फिर इसीलिए बैठे रहते अकेले, संगी-साथी भी नहीं मिलते, क्योंकि जो मिलते हैं उनको तुम सताते हो उलटा । अब यह बूढ़ी औरत को ऐसे फिसला देना, ऐसे गिरा देना, हड्डी तोड़ देना, यह भी कोई बात हुई ! आदमी थोड़ा शिष्टाचार का भी खयाल रखता है, इसका भी तुम्हें खयाल नहीं! मगर ये बड़े प्रेम में बातें कही गयीं। बात महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण यह है कि टेरेसा ने कहा, इसीलिए तुम्हारे मित्र इतने कम हैं। अब मैं जान गयी कि तुम्हारे मित्रों की संख्या कम क्यों है । कसौटी है । हजार में एक भी ईश्वर का खोजी हो जाए तो बहुत । लाख में एक पहुंच जाए तो बहुत। हजार में एकाध खोज पर निकलता है, लाख में एकाध पहुंचता है। तुम हजारों में से एक बनो । चुनौती स्वीकार करो। तुम लाख में से एक बनो । क्योंकि उसी अद्वितीय अनुभव से जीवन तृप्त होता है, संतुष्ट होता है। ईश्वर के बिना कोई तृप्ति नहीं है, सत्य के बिना कोई संतोष नहीं है। चौथा प्रश्न : भगवान, मुझे लगता है कि मैं अब तक आपकी एक बात भी न सुन सका हूं, न समझ सका हूं। और न आपका एक भी उपदेश ग्रहण कर पाया हूं। वर्षों पूर्व आपके साथ प्रथम साक्षात्कार में जो बात आपने कही थी, वह भी समझने को ही पड़ी है। ऐसा क्यों है? मैं इतना मंदमति क्यों हूं ? पूछा है आनंद मैत्रेय ने । मंदमति नहीं हो, इसीलिए। मंदमति तो सुनकर ही समझते हैं सुन लिया। मंदमति तो सुनकर ही समझते हैं समझ लिया। मंदमति तो शब्द को पकड़ लेते हैं और सोचते हैं सत्य की उपलब्धि हो गयी। मंदमति तो पंडित हो जाते हैं, सुन-सुन 297

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