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जुहो! जुहो! जुहो!
हैं, मैं भी झिझका था। सभी झिझकते हैं। ऐसा लगता है सब हाथ से जा रहा है, रोक लें अपने को, सम्हाल लें अपने को, पता नहीं फिर लौट सकेंगे कि नहीं लौट सकेंगे!
और जो हो रहा है, यह पागलपन तो नहीं है? क्योंकि हमने जीवन में दुख जाना, जब सुख की पहली किरण आती है, हमें भरोसा नहीं आता कि ऐसा हो सकता है। जब पहली दफे आनंद का झोंका आता है तो हमें लगता है, कल्पना तो नहीं कर ली? कहीं सम्मोहन में तो नहीं पड़ गए?
एक मित्र ने कल ही मुझे लिखा कि जब भी आपको सुनने आता हूं, एक डर लगता है कि कहीं किसी सम्मोहन में तो नहीं पड़ा जा रहा हूं? अच्छा लगता है, और घबड़ाहट भी होती है, भय भी होता है। फिर दो-चार महीने नहीं आता। फिर याद आने लगती है कि चलो एक दिन तो चला जाए, फिर आ जाता हूं। और फिर यही चिंता होती है। और मेरी पत्नी भी मुझसे यही कहती है कि तुम सम्मोहित मत हो जाना। वहां जाकर कई लोग सम्मोहित हो जाते हैं। फिर महीने दो महीने रुक जाता हूं। रुक भी नहीं सकता, आ भी नहीं सकता!
बेचैनी स्वाभाविक है। तुम्हें घबड़ाहट पकड़ेगी कि यह क्या हो रहा है? मेरा नियंत्रण टूटा जा रहा है, मेरी सीमा टूटी जा रही है, मेरी एक व्यवस्था थी, बिगड़ी जा रही है। ___ और तुम्हें इसके लिए कहीं भी सहारा न मिलेगा। तुम्हारी पत्नी कहेगी, पागल हुए जा रहे ! तुम्हारे बेटे कहेंगे कि डैडी, आपको क्या हो गया है ? तुम्हारे पिता कहेंगे कि ऐसा मत करो, सम्हल जाओ, अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम्हारे मित्र, प्रियजन, दफ्तर के लोग कहेंगे कि अब और आगे मत बढ़ो, इस मार्ग पर कई लोग पागल हो गए हैं; अभी लौट आओ, अपना संसार भला है। और तुम्हारा मन भी यही कहेगा कि रुक जाओ, ठहर जाओ, अभी कुछ नहीं बिगड़ा, अभी रुक सकते हो; कहीं ऐसा न हो एक कदम और, और फिर तुम फिसलो और फिर तुम्हारा पता न चले!
इसीलिए आंखमिचौनी हो रही है, देर लग रही है, क्योंकि तुम झिझक रहे हो। झिझक छोड़ो, आश्वस्त होकर आगे बढ़ो!
और आखिरी प्रश्न :
एक प्यास है मेरे भीतर, बस इतना ही जानता हूं। किस बात की है, यह भी साफ-साफ नहीं। आप कुछ कहें।
में एक छोटी सी कहानी कहूंगा।
हिमालय की घाटियों में एक चिड़िया निरंतर रट लगाती है-जुहो! जुहो! जुहो!
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