Book Title: Dhammapada 09
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 307
________________ एस धम्मो सनंतनो एक कोयल ने उसे देखा और पूछा, चाचा, कहां जा रहे हो? पूरब को जा रहा हूं, यहां मेरा रहना दूभर हो गया है, कौवे ने कहा। कोयल ने पूछा, क्यों? कौवे ने कहा, यहां मेरे गायन पर सभी को एतराज है। मैं गाता नहीं, मैंने शुरू गाना नहीं किया कि लोग एतराज करने लगते हैं कि अरे बंद करो, बकवास बंद करो, कांव-कांव बंद करो! यहां गाने की स्वतंत्रता नहीं और सब को मेरे गाने पर एतराज है। कोयल ने पूछा, लेकिन जाने मात्र से तो तुम्हारी समस्या हल नहीं होगी। पूरब जाने से क्या होगा! कौवे ने कहा, क्यों? कौवे ने साश्चर्य पूछा। इसलिए कि जब तक तुम अपनी आवाज नहीं बदलते, पूरब वाले भी तुम्हारे गाने पर एतराज उठाएंगे। पूरब वाले भी तुम्हारे गाने को इसी तरह नापसंद करेंगे। कुछ फर्क न पड़ेगा। तुम्हारी आवाज, तुम्हारा कंठ बदलना चाहिए। परिस्थिति बदलने से कुछ नहीं होता, मनःस्थिति बदलनी चाहिए। एक आदमी . गृहस्थ था, गृहस्थी से अभी मुक्त तो मन न हुआ था लेकिन संन्यस्त हो गया, अब वह संन्यस्त होकर नयी गृहस्थी बसाएगा। एक आदमी के बेटे-बेटी थे, उनसे छूट गया तो शिष्य-शिष्याओं से उतना ही मोह लगा लेगा; कोई फर्क न पड़ेगा। मेरे एक मित्र हैं। उनको मकान बनाने का बड़ा शौक है। अपना ही मकान बनवाते हैं ऐसा नहीं, मित्रों के भी मकान बनवाते हैं, वहां भी छाता लिये खड़े रहते थे। धूप हो, वर्षा हो, मगर वह खड़े हैं, उनको मकान बनाने में बड़ा रस। और बड़े कुशल हैं—सस्ते में बनाते हैं, ढंग का बनाते हैं। और शौक से बनाते हैं तो कुछ पैसा भी नहीं लेते। फिर वह संन्यासी हो गये। आठ-दस साल संन्यासी रहे। एक दफे मैं उनके पास से गुजरता था तो मैंने कहा जाकर देखू। मैंने सोचा तो कि लिये होंगे छाता! खड़े होंगे! बड़ा हैरान हुआ, जब मैं पहुंचा वह छाता ही लिये खड़े थे-आश्रम बनवा रहे थे। मैंने उनसे पूछा, फर्क क्या हुआ? उधर तुम अपना मकान बनवाते थे, मित्रों के मकान बनवाते थे, इधर तुम आश्रम बनवा रहे हो। छाता वही का वही है, छाते के नीचे धूप में तुम वही के वही खड़े हुए हो। फर्क कहां हुआ? मकान के लिए उतनी चिंता रखते थे, उतनी अब आश्रम की चिंता हो गयी, चिंता कहां गयी! ___कोयल ने ठीक कहा कि चाचा, पूरब जाने से कुछ भी न होगा। लोग वहां भी तुम्हारी कांव-कांव पर इतना ही एतराज उठाएंगे। हम धर्म के नाम पर ऊपर-ऊपर से बदलाहटें कर लेते हैं, और भीतर का मन वही का वही। वह भीतर का मन फिर-फिर करके अपने पुराने जाल लौटा लाता है। महात्मा हैं, मगर राजनीति पूरी चलती है। महात्माओं में बड़ी राजनीति चलती है। हालांकि धर्म के नाम पर चलती है। जहर तो राजनीति का, उसके ऊपर धर्म की थोड़ी सी मिठास चढ़ा दी जाती है, बस इतना ही। और यह और भी खतरनाक राजनीति है। ईश्वर के खोजी संसार में इसलिए कम हैं कि ईश्वर के झूठे खोजी बहुत ज्यादा 294

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