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आचरण बोध की छाया है
पर चलने लगे, तो अड़चन में पड़ जाएगा, कठिनाई में पड़ जाएगा । परमात्मा तो मिलेगा नहीं, अपने जीवन की शांति भी खो जाएगी । तुम्हें अपने ही ढंग से ... तुम्हें तुम्हीं को निवेदन करना है। तुम जैसे हो, वहीं खिलना है और वही फूल परमात्मा के चरणों में चढ़ा देना है।
आलस्य सुंदर है। ऐसी बात बुद्ध तुमसे नहीं कह सकते थे। ऐसी बात मैं तुमसे कह सकता हूं। ऐसी बात तुमसे कोई कभी नहीं कह सकता था । क्योंकि इस जग में जितने भी आज तक धर्म हुए, उन सभी धर्मों की विशिष्ट धारणाएं हैं। वे एक विशिष्ट पथ का निवेदन करते हैं । उस पथ पर जो बैठ जाए, बैठ जाए; नहीं बैठे, वह गलत मालूम होने लगता है।
तो बुद्ध उस आलसी भिक्षु से ठीक से बोलते भी नहीं थे। अब तुम जानते हो कि शीला से मैं कितनी मधुर-मधुर बातें करता हूं ! बुद्ध तो उससे बोलते भी नहीं थे। मैं तो मधुर ही बात करता हूं, तुम चाहे संकल्प वाले होओ, चाहे समर्पण वाले होओ; चाहे तुम बड़े कर्मठ होओ, चाहे बड़े आलसी और चाहे तुम ज्ञान की तरफ से चलो, और चाहे प्रेम की तरह से चलो- तुम न भी चलो, तुम अपनी ही जगह बैठे रहो, तो भी मेरे बोलने की मधुरता में फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि मैं कहता हूं, अगर तुम वहीं बैठे रहे हिम्मत करके, तो परमात्मा वहीं आएगा। जाने की भी ऐसी क्या बात! तुम्हीं थोड़े ही परमात्मा को खोज रहे हो, परमात्मा भी तुम्हें खोज रहा है। अगर तुम बैठ गए कि अब तू, तेरी मर्जी — दास मलूका हो गए— आएगा, आना पड़ेगा। यह आग एक ही तरफ से थोड़े ही लगी है, यह आग दोनों तरफ से लगी है।
आज इतना ही ।
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