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सत्य अनुभव है अंतश्चक्षु का
दो कौड़ी की हैं। स्वप्नजाल हैं।
तुम्हारा प्रश्न तो महत्वपूर्ण है कि सत्य क्या है, लेकिन तुम जरा और दूसरी दिशा से पूछो। तुम यह पूछो कि सत्य को कैसे पाया जाता है? जरा व्यावहारिक बनो। जमीन पर आओ, आकाश में न उड़ो। तुम जहां हो वहां से बात शुरू करो। अंधा आदमी पूछता है, प्रकाश क्या है? अंधे आदमी को पूछना चाहिए, मैं अंधा हूं, मेरी आंखें कैसे ठीक हों? बहरा आदमी पूछता है, ध्वनि क्या है? बहरे आदमी को पूछना चाहिए, मेरे कान कैसे ठीक हों? ।
तुम मत पूछो सत्य की बात, तुम इतना ही पूछो कि हमारी आंख कैसे ठीक हो जाएं? आंख पर जाली जमी है, जन्मों-जन्मों की जाली जमी है वासना की, विचार की, विकृति की, उसके कारण कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता। इसलिए सवाल उठता है कि सत्य क्या है? अंधे को सवाल उठता है कि प्रकाश क्या है? और ऊपर से देखोगे तो सवाल में कुछ भूल भी नहीं मालूम पड़ती, लेकिन क्या यह उचित सवाल है? और क्या तुम प्रकाश की व्याख्या करोगे अंधे के सामने? और क्या तुम सोचते हो कि अंधा इससे कुछ समझ पाएगा? तुम प्रकाश का गुणगान करोगे, स्तुति गाओगे? तुम प्रकाश के रंगों और प्रकाश के अदभुत अनुभव की चर्चा में उतरोगे? गीत रचोगे, गुनगुनाओगे? -
सब व्यर्थ होगा, क्योंकि अंधे को तुम्हारी कोई बात समझ न आएगी। जिसने प्रकाश जाना नहीं, उसे प्रकाश के संबंध में कुछ भी कहा गया हो, समझ में न आएगा। खतरा यह है कि कहीं कुछ का कुछ समझ में न आ जाए। गलत प्रश्न पूछने में बड़े से बड़ा खतरा यही है कि कहीं कुछ का कुछ समझ में न आ जाए।
रामकृष्ण कहते थे, एक आदमी था, अंधा आदमी, उसके मित्रों ने उसे भोज दिया। खीर बनी। उस अंधे आदमी को पहली दफे ही खीर खाने को मिली। गरीब
आदमी था, खीर उसे खूब रुची। उसने और-और मांगी। फिर वह पूछने लगा, जरा इस खीर के संबंध में मुझे कुछ बताओ। पास में बैठे किसी तथाकथित बुद्धिमान ने कहा, खीर बिलकुल सफेद होती है, रंग इसका सफेद है। उस अंधे ने कहा, मेरे साथ मजाक न करो, जानते हो कि मैं अंधा हूं, जन्म-अंधा हूं, सफेद, सफेद यानी क्या? मगर पास में बैठा हुआ आदमी भी पूरा पंडित था, उसने सफेद को समझाने की कोशिश की। उसने कहा, कभी बगुले देखे? बगुले जैसे सफेद होते हैं, उसी का नाम सफेद है। उस अंधे ने कहा, एक पहेली को सुलझाने के लिए तुम दूसरी पहेली बता रहे हो। बगुले, बगुले क्या? कभी देखे नहीं।
मगर पंडित भी पंडित ही था। उसने भी जिद्द कर ली थी कि समझाकर ही रहेगा। उसने कहा, बगुले नहीं देखे! चलो यह मेरा हाथ है, इस पर हाथ फेरो, ऐसी बगुले की गर्दन होती है। अपने हाथ को बगुले की गर्दन जैसा टेढ़ा करके उसने हाथ फिरवा दिया। अंधा बड़ा खुश हुआ, बड़ा आनंदित हुआ। उसने कहा, खूब-खूब धन्यवाद
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