________________
एस धम्मो सनंतनो
क्षमता भी नहीं रही। अब तो मौत दिखायी पड़ती है। इधर गया हुआ जीवन दिखायी पड़ता है, जिसको ऐसे ही गंवा दिया, कभी भोगा नहीं, इस अकड़ में रहे कि क्षणभंगुर को क्या भोगें ; कभी ठीक से खाया नहीं, कभी ठीक से पहना नहीं, कभी ठीक से राग-रंग नहीं किया, इस सबको उस आशा में बिता दिया और यह खड़ी मौत और मौत के पार कुछ है, अब यह पक्का नहीं होता। अब कौन पक्का दिलाए, कौन भरोसा दिलाए ! तो जीवेषणा बहुत जोर से उठेगी ।
मेरी प्रक्रिया मूलतः भिन्न है। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, वासना से भागना मत, वासना को दबाना मत, वासना को जीना - समग्रता से जीना । इस जीवन के अवसर को छोड़ना नहीं, इस जीवन के अवसर में जितने गहरे उतर सको उतर जाना। एक बात खयाल रखना, जागरूक रहना और देखते रहना कि इस जीवन में कितने ही गहरे उतरो, कुछ मिलता है कि नहीं मिलता ?
मैं तुमसे उपवास करने को नहीं कहता, मैं कहता हूं, जितना स्वाद ले सको भोजन का, लेना। लेकिन स्वाद ले-लेकर बार-बार जागकर देखना, मिला क्या? पानी पर बबूला उठा और मिट गया। जितनी कामवासना में उतरना हो उतर जाना, लेकिन हर बार कामवासना को ध्यान बना लेना, उतरते वक्त देखना कि मिल क्या रहा है? और मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम कहो कि कुछ नहीं मिल रहा है। खयाल रखना, वह तुमने कहा तो गड़बड़ हो गयी, तुमने दमन शुरू कर दिया। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम दोहराना कि क्या रखा है, यहां कुछ भी नहीं मिल रहा है! मैं यह कह ही नहीं रहा । मैं यह कह रहा हूं, तुम गौर से देखना, कुछ मिल रहा है ? कौन जाने मिलता हो ! मिलता हो तो ठीक। और भय क्या है ?
लेकिन कभी यहां, किसी को कभी कुछ नहीं मिला। इसलिए अगर तुमने गौर से देखा तो तुम पा ही लोगे, सब राख है। यह जो राख की अनुभूति है, यह सारे जीवन पर तुम्हारे राख का जो अनुभव होगा, यही तुम्हें कह देगा, इस जीवन में कुछ भी नहीं है। फिर मौत आएगी तो तुम डरोगे क्यों? भयभीत क्यों होओगे ? जिस जीवन में कुछ था ही नहीं, अगर वह जाने लगा, तो पकड़ने की क्या बात है ?
हम पकड़ते इसीलिए हैं कि हम ठीक से देख नहीं पाए कि जीवन में क्या है। मैंने सुना है; एक राजस्थानी लोककथा है। एक लड़का सिर्फ दही ही दही खाता था। सब समझा-बुझाकर हार गये। साधु-संन्यासियों के पास ले जाया गया, उसने एक न मानी । जितना समझाते उतना उसका दही में रस बढ़ता जाता, जो कि बिलकुल स्वाभाविक है।
करो निषेध, रस बढ़ता है। किसी को कह दो कि इस दरवाजे के भीतर झांककर मत देखना, फिर मुश्किल हो जाती है, फिर झांककर देखना ही पड़ता है। आखिर आदमी आदमी है, उत्सुकता जगती है। जिस चीज को दिखाना हो लोगों को, उसको छिपाना। मगर इस ढंग से छिपाना कि लोगों को पता चल जाए कि तुम छिपा रहे
290