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एकांत ध्यान की भूमिका है अथिरता को परिपूर्ण रूप से देख लेने का नाम है-अनात्म को समझ लेना, आत्मा कहीं भी नहीं है। अगर यह दिखायी पड़ने लगे कि आत्मा कहीं भी नहीं है, सभी कुछ स्कंधमात्र है, जोड़मात्र है, तो मनुष्य दुख से पार हो जाता है।
और ये तीन सूत्र विशुद्धि के सूत्र हैं-अनित्य है सब, सब दुख से भरा है और कहीं भी कोई आत्मा नहीं है।
जरा सोचो, अगर ये तीन सूत्र तुम्हारे खयाल में आ जाएं तो फिर क्या बाधा रह जाएगी ध्यान में? और अगर बाधा आती हो, तो समझ लेना कि इन तीन सूत्रों में कहीं कोई कमी रह गयी।
तो पहले ये तीन भावनाएं, फिर ध्यान। अनूठा प्रयोग है यह। और जितने लोग बुद्ध के द्वारा ध्यान को उपलब्ध हुए, उतने लोग कभी किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा ध्यान को उपलब्ध नहीं हुए। न कृष्ण के द्वारा, न महावीर के द्वारा, न क्राइस्ट के द्वारा, न मोहम्मद के द्वारा, न जरथुस्त्र के द्वारा, न लाओत्सू के द्वारा। इतने लोग कभी भी किसी और व्यक्ति के द्वारा ध्यान को उपलब्ध नहीं हुए, जितने लोग बुद्ध के द्वारा ध्यान को उपलब्ध हुए। ऐसा लगता है कि बुद्ध ने ठीक चाबी पर हाथ रख दिया।
मगर ये तीन भावनाएं कठिन हैं। सम्हालते-सम्हालते सम्हलती हैं। आते-आते आती हैं। एकदम से नहीं आ जातीं।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को भेजते थे मरघट। नया भिक्षु आता, उसे भेज देते मरघट कि तीन महीने मरघट पर बैठकर ध्यान कर। लाशें आतीं, मुर्दे लाए जाते, जलाए जाते; हड्डियां पड़ी हैं, खोपड़ियां पड़ी हैं, जो कल तक जिंदा था वह आज राख होकर पड़ा है। भिक्षु बैठा है, और ये तीन धारणाएं कर रहा है
सब्बे संखारा अनिच्चाति। सब्बे संखारा दुक्खाति। सब्बे धम्मा अनत्ताति।
ये तीन भावनाएं कर रहा है बैठा-बैठा। जब किसी की लाश जल रही है, तब वह यह भावना कर रहा है-यहां सब अनित्य है, यहां सब दुखपूर्ण है, यहां कहीं कोई आत्मा नहीं है। यहां कहीं कोई आत्मा नहीं, इसका अर्थ, यहां कहीं कोई शरण लेने योग्य स्थल नहीं है। यहां सभी व्यर्थ है। इस सारी व्यर्थता के पार चले जाना है। इस सारी व्यर्थता के ऊपर साक्षी हो जाना है।
बैठा है, रोज मुर्दे आते, सुबह-सांझ, जलते ही रहते-मरघट पर कोई न कोई जलता ही रहता है-मुर्दो को जलते देखते-देखते, देखते-देखते ऐसा भी दिखायी पड़ने लगता है कि एक न एक दिन मैं भी जलूंगा, ऐसे ही जलूंगा, क्या पकडूं?
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