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आचरण बोध की छाया है
भीड़ में रहते हैं वे भेड़ ही रह जाते हैं। भेड़ें देखीं न, घसर-पसर कैसा भीड़ में चलती हैं! जरा भी एक भेड़ भीड़ के बाहर छूट जाए तो जल्दी से मिमियाती हुई भीड़ में समा जाती है। भीतर घुसती है भीड़ में!
एक बच्चे से स्कूल में उसके शिक्षक ने पूछा-और वह बच्चा गड़रिए का बच्चा था, इसलिए इस तरह का सवाल भी पूछा कि समझ दस भेड़ें तूने अपने बगीचे में बंद कर दी और एक भेड़ छलांग लगाकर बाहर निकल गयी, तो कितनी भेड़ें बचेंगी? उसने कहा, एक भी नहीं बचेगी। उस शिक्षक ने कहा, तू होश की बातें कर रहा है? मैं कह रहा हूं, दस थीं और एक छलांग लगा गयी; बिलकुल नहीं बचेंगी? उसने कहा, बिलकुल नहीं। तो उस शिक्षक ने कहा, तुझे गणित बिलकुल नहीं आता। उसने कहा, गणित की छोड़ो, गणित मुझे आता हो न आता हो, लेकिन भेड़ों के संबंध में जितना मुझे ज्ञान है, आपको नहीं। __ अब भेड़ों को भी गणित नहीं आता, उस लड़के ने कहा। अगर एक भेड़ कूदी कि सब भेड़ कूद जाएंगी। एक भी नहीं बचेगी। बात समझने जैसी है—भेड़ों को भी गणित नहीं आता! __ आदमी दो तरह के होते हैं—या तो सिंह की तरह आदमी होता है और या भेड़ की तरह आदमी होता है। भीड़ में जो है वह भेड़ की तरह है। भीड़ से जो मुक्त होता है वह सिंह की तरह है।
फ्रायड की चिकित्सा तो तुम्हें भेड़ बनाती है। तुममें अगर कहीं थोड़ा सिंहपन पैदा होने लगे, तो जल्दी से इलाज करके तुम्हारे सिंहपन को काट दिया जाता है। बुद्ध की चिकित्सा–चिकित्सा कहनी ठीक ही नहीं-क्रांति है, आमूल रूपांतरण है, जड़-मूल से क्रांति है। बुद्ध की व्यवस्था तुम्हें सिंह बनाती है। तुम्हें सिखाती है कि कैसे तुम हुंकार भरो, कैसे सिंहनाद करो; कैसे तुम स्वयं हो जाओ, प्रामाणिक रूप से स्वयं हो जाओ।
फिर फ्रायड का तो इतना ही खयाल है कि आदमी के मन में तनाव हों, चिंताएं हों, तो उन्हें थोड़ा कम कर दिया जाए, उनकी मात्रा कम कर दी जाए, मात्रा-भेद होगा। समझो कि एक आदमी सौ डिग्री पर उबलता है और पागल हो जाता है, तुम निन्यानबे डिग्री पर हो तो तुम पागल नहीं हो। एक सौ डिग्री पर जो है वह पागल है, वह पागलखाने में है। तुममें और पागलखाने वाले आदमी में फर्क कितना है ? एक डिग्री का। यह मात्रा का ही फर्क है, यह कोई असली फर्क नहीं है।
बुद्ध तो कहते हैं, असली फर्क तब होता है जब तुम्हारा मन समाप्त हो जाता है। जिसके पास मन न रहा, उसके पागल होने का उपाय ही न रहा। जब तक मन है, तब तक तुम पागल होने के करीब, या दूर, मगर रहोगे पागल ही। कोई निन्यानबे डिग्री का पागल, कोई सौ डिग्री का, कोई एक सौ एक डिग्री का। जो आदमी अभी पागलखाने में चला गया, वह भी कल तुम्हारे जैसा ही था। दफ्तर आता था, काम
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