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एस धम्मो सनंतनो
वह बिलकुल फिकर न करेगी। तुम गधे के गले में लटका दो, वह अकड़कर न चलेगा। उसके लिए आदमी जैसा मूरख कोई चाहिए। ___ तो परमात्मा को तो कुछ पता ही नहीं है कि तुम्हारा धन क्या है; बाधा कैसे पड़ेगी! लेकिन जिसने छोड़ दिया, उसको एक बेचैनी पकड़ती है—उसने तो छोड़ दिया. उसकी तो नाक कट गयी, अब तो इसी में सार है कि औरों की भी कट जाए। इसलिए बड़ी मूढ़तापूर्ण बातें भी सदियों तक चलती रहती हैं। उनकी परंपरा बन जाती है।
तो बुद्ध कहते हैं, अतिशय से बचना। अति वर्जित है। फिर अति चाहे भोग और त्याग की हो, चाहे जीवन और मृत्यु की हो, चाहे संसार और मोक्ष की हो, अति तो अति ही है। ___मुक्त कौन है ? बुद्ध की परिभाषा में मुक्त वह है, जो ठीक मध्य में खड़ा हो गया। जिसे न तो अब धन की आकांक्षा है और न धन को छोड़ने की आकांक्षा है। यह बड़ा क्रांतिकारी विचार है। जिसे न तो संसार में अब लगाव है, न संसार से विराग है। न राग, न विराग। जो कहता है, संसार अपनी जगह, मैं अपनी जगह। जिसने राग-विराग के सारे संबंध छोड़ दिए।
ध्यान रखना, राग भी संबंध है, विराग भी संबंध है। मित्रता से भी संबंध बनता है, शत्रुता से भी संबंध बनता है। तुम मित्रों की ही थोड़े याद करते हो, शत्रुओं की भी याद करते हो, वे भी तुम्हारे सपनों में आते हैं। और मित्र तो कभी भूल भी जाएं, शत्रु कभी नहीं भूलते।
तो इस संसार में न तो मित्रता बनाना, न शत्रुता बनाना। इस संसार में न तो किसी चीज को कहना, इसके बिना न जी सकूँगा, और न यह कहना कि इसके साथ न जी सकूँगा। यह बड़ी क्रांति है।
यह धर्म के जगत में बुद्ध ने पहली दफे मनोविज्ञान का एक मौलिक आधार स्थापित किया। मन का स्वरूप समझाया कि मन अतियों में डोलता है, यह मन की प्रक्रिया है। अगर मन से मुक्त होना है, तो अति से मुक्त हो जाना, तो मन से मुक्त हो जाओगे। अति यानी मन, मन यानी अति। और अति से जो मुक्त है, वही मुक्त है, क्योंकि वही मन से मुक्त है।
तीसरा प्रश्न:
संसार से मुक्ति कैसे हो? संसार के बंधन बहुत मजबूत हैं। संसार में बंधन हैं ही नहीं। संसार क्या बांधेगा! संसार कैसे बांधेगा! जड़ कैसे
बांध सकता है?