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मन की मृत्यु का नाम मौन
ऐसे जीता है जैसे ईश्वर जीता है। इससे कम में ब्रह्मचर्य नहीं।
तो बुद्ध ने कहा, मैं भिक्षु उसको कहता हूं जिसकी चर्या ईश्वर जैसी है। इतनी शुद्ध, इतनी निर्मल, इतनी पवित्र । इतनी पवित्र कि पुण्य भी उसने त्याग दिया। और इतनी शांत और इतनी मौन कि वहां सदा स्मृति का दीया जलता रहता है। उठता है भिक्षु, बैठता है भिक्षु, चलता है भिक्षु, भोजन करता, पानी पीता, लेकिन हर वक्त स्मृति का दीया जलता रहता है-जागरूक। जिसको गुरजिएफ ने सेल्फ रिमेंबरिंग कहा है। आत्मस्मरण से भरा रहता है।
बुद्ध का शब्द है, सम्यक-स्मृति। ठीक-ठीक जानता रहता है कि मैं क्या कर रहा हूं। जिसके जीवन में अनजाने कुछ भी नहीं होता। इसका अर्थ यह हुआ कि अंततः जिसका अचेतन मन विसर्जित हो जाएगा। क्योंकि जब अनजाने कुछ भी नहीं होता तो धीरे-धीरे भीतर रोशनी बढ़ती जाएगी, अचेतन समाप्त हो जाएगा, चैतन्य ही रह जाएगा। पूरा घर देदीप्यमान हो जाएगा। उसको मैं भिक्षु कहता हूं।
तीसरा दृश्यः
भिक्षु गृहस्थों के घर निमंत्रित होने पर भोजनोपरांत दानानुमोदन करते थे। किंतु तीर्थक सुखं होतु आदि कहकर ही चले जाते थे। लोग स्वभावतः भिक्षुओं की प्रशंसा करते और तीर्थकों की निंदा करते थे। यह जानकर तीर्थकों ने, हम लोग मुनि हैं, मौन रहते हैं, श्रमण गौतम के शिष्य भोजन के समय महाकथा कहते हैं, बकवासी हैं, ऐसा कहकर प्रतिक्रिया में निंदा शुरू कर दी।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को सदा कहा है कि जितना लो, उससे ज्यादा लौटा देना। कहीं ऋण इकट्ठा मत करना। इसलिए बुद्ध का भिक्षु जब भोजन भी लेता कहीं तो भोजन के बाद, धन्यवाद के रूप में, जो उसको मिला है उसकी थोड़ी बात करता था। जो आनंद उसने पाया, जो ध्यान उसे मिला है, जो शील की संपदा उसे मिली है, जो नयी-नयी किरणें और नयी-नयी उमंगों के तूफान उसके भीतर उठ रहे हैं, जो नया उत्सव उसके भीतर जगा है; जो नए गीत, नए नृत्य उसके भीतर आ रहे हैं, भोजन लेता तो धन्यवाद में वह अपने भीतर की कुछ खबर देता। भोजन लिया है, ऋणी नहीं होना है। स्वभावतः, जो तुम्हारे पास है वह दे देना। दो रोटी के बदले बुद्ध का भिक्षु बहुत कुछ लौटाता था। वह अपना सारा प्राण उंडेल देता था। ___तो भिक्षु गृहस्थों के घर निमंत्रित होने पर भोजनोपरांत दानानुमोदन करते थे। किंतु तीर्थक सुखं होतु आदि कहकर ही चले जाते थे। __सुखी होओ, इतना कहकर चले जाते थे। स्वभावतः, लोगों को बुद्ध के भिक्षु प्रीतिकर लगते कि कुछ कहते तो हैं, कुछ समझाते तो हैं, कुछ जगाते तो हैं हम जगें न जगें, यह हमारी बात, लेकिन अपनी तरफ से चेष्टा तो करते हैं। और जैनों के मुनि केवल सुखं होतु, सुखी होओ, इतना कहकर चले जाते हैं।