________________
एस धम्मो सनंतनो
फूल नहीं हैं कि अभी डाले और अभी फूल लग गए। ये बड़े वृक्ष हैं, जो आकाश में उठते हैं, चांद-तारों को छूते हैं, इनकी बड़ी गहरी जड़ें होती हैं। और जब कोई वृक्ष आकाश को छूने की आकांक्षा करता है तो उसकी जड़ों को पाताल छूना पड़ता है। धीरे-धीरे होते हैं। यह परमात्मा का अनुभव बड़े धीरे-धीरे होता है। और धीरे-धीरे हो, यही अच्छा। कभी-कभी तेजी से हो जाए, जल्दी हो जाए, तो आदमी विक्षिप्त हो सकता है। __ मुझे पता है। तुम पूछते हो, 'आपसे क्या छिपा है!'
कुछ भी नहीं छिपा है। बहुत कुछ तुमसे छिपा है, जो मुझसे नहीं छिपा है। तुम्हें तो धीरे-धीरे ऊपर-ऊपर का पता चल रहा है, मुझे तुम्हारे भीतर अंतस्तल के गहरे में क्या हो रहा है, उसका भी पता है। देख रहा हूं, चुपचाप देख रहा हूं और बहुत खुश हूं। न तुम.पूछो, न मैं कुछ कहूं। आह्लादित रहो। अहोभाग्य ही है। 'समझ में नहीं पड़ता है।'
समझ में पड़ने की जरूरत भी नहीं है। यह इतनी बात नहीं है जो समझ में आ जाए। यह ऐसी बात नहीं जो समझ में आ जाए। इतनी छोटी बात नहीं जो समझ में आ जाए। यह बड़ी बात है, यह समझ से बड़ी बात है। समझ बड़ी छोटी सी चीज है। संसार समझ में आता है, परमात्मा कब समझ में आता है! दुकान समझ में आती है, मंदिर कब समझ में आता है! साधारण बातचीतें समझ में आती हैं, सत्य की उदघोषणाएं कब समझ में आती हैं! समझ बड़ी छोटी है। समझ के पिंजड़े में सत्य का पक्षी कभी बंद होता ही नहीं, उसे तो खुला आकाश चाहिए।
तो समझ में आएगा नहीं। और समझने की कोशिश मत करना। क्योंकि समझने की कोशिश में तुम सिकुड़ जाओगे। और समझने की कोशिश में तुम विकृति खड़ी कर दोगे। समझने की कोशिश से बाधा पड़ जाएगी। तुम समझने की कोशिश ही मत करना। इसीलिए तो समस्त सदगुरुओं ने कहा है, उस परम घड़ी में श्रद्धा के अतिरिक्त और कोई सहारा नहीं है। अब तो श्रद्धा रखो, बुद्धिमानी से काम न चलेगा। अब तो बुद्धिमानी बुद्धिहीनता होगी। अब तो अनुभव आ रहा है, अनुभव के साथ बहो, हिम्मत से बहो, जहां ले जाए जाओ, जो हो होने दो। अब तुम्हारी समझ काम नहीं पड़ेगी, समझ को छोड़ो।
बड़ी महत्वपूर्ण घटना घट रही है, अब उसे समझ से विकृत मत करना। समझ का अर्थ ही यह होता है कि मेरी बुद्धि के पकड़ में आ जाए। समझ का अर्थ होता है, चम्मच में सागर आ जाए। समझ का अर्थ होता है, एक दीए को लेकर सूरज को रोशनी दिखा दूं।
नहीं, यह नहीं हो सकेगा। तुम दीए को फूंको, समझ को बुझा दो। अब समझ की कोई जरूरत ही न रही। समझ तो ऐसे है जैसे अंधे के हाथ में लकड़ी। अंधा लकड़ी से टटोलता है। फिर उसकी आंखें ठीक हो गयीं, अब थोड़े ही लकड़ी से
180