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जागरण ही ज्ञान
पहला प्रश्न
पीछे लौटना अब मेरे लिए असंभव है। बीज अंकुरित हुआ है। लेकिन यह सब हुआ आपको सुनते-सुनते, देखते-देखते, पढ़ते-पढ़ते। यह शास्त्र ही मेरे लिए नौका बनकर मुझे शून्य में लिए जा रहा है। भय छोड़कर बूंद सागर को मिलने को निकल पड़ी है। और आप कहते हैं कि शास्त्र से कुछ भी न होगा। यह आप कैसी अटपटी बात कहते हैं?
मैं अभी शास्त्र नहीं। मैं अभी जीवित हूं। तुम सौभाग्यशाली हो कि तुम शास्त्र के करीब नहीं हो।
बुद्ध जब बोले, तब धम्मपद शास्त्र नहीं था, तब धम्मपद शास्ता था। तब धम्मपद में श्वास थी, प्राण चलते थे, हृदय धड़कता था, खून बहता था, तब धम्मपद जीवित था। कृष्ण जब अर्जुन से बोले, तब गीता गुनगुनाती थी, नाचती थी। तब शास्त्र नहीं था, शास्त्र तो शास्ता के जाने के बाद बनता है। शास्त्र तो समय की रेत पर छोड़ी गयी लकीरें है। सांप तो जा चुका, रेत पर निशान रह गया।
मैं अभी शास्त्र नहीं हूं। इसलिए मैं जो कहता हूं, उसमें कुछ अटपटा नहीं है।