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एस धम्मो सनंतनो
उठ, आज तेरी बदलाहट किए देते हैं। तू कहता है, सब तेरे से ज्यादा सुखी हैं, तू ही सबसे ज्यादा दुखी है? उसने कहा, हां प्रभु, यही तो कह रहा हूं, जिंदगीभर से यही कह रहा हूं; अब सुनवायी हुई! परमात्मा ने कहा, चल, उठ जा! एक बड़े भवन की तरफ सारा नगर जा रहा है, सब लोग अपने-अपने कंधे पर गठरियां लिए हुए हैं। क्योंकि सबको कहा गया है कि अपने-अपने दुख, अपने-अपने सुख अपनी-अपनी गठरी में बांधकर ले आओ। यह भी अपने सुख-दुख जल्दी से बांधकर पहुंच गया कि आज बदलने का मौका है।
मंदिर में पहुंचकर सारे लोगों की भीड़ लगी है अपनी-अपनी गठरी लिए हुए। आज्ञा हुई कि सब खूटियों पर अपनी गठरियां टांग दो। गठरियां टांग दी गयीं। फिर आज्ञा हुई कि अब जिसको भी जिसकी गठरी चुननी हो, वह चुन ले।
बड़ी भाग-दौड़ मच गयी, यह आदमी भी भागा; लेकिन चकित होंगे यह जानकर आप कि सभी ने अपनी-अपनी गठरियां वापस चुन लीं-इस आदमी ने भी-और बड़ी खिलखिलाहट हुई आकाश में और परमात्मा ने कहा, क्यों? तो उसने कहा कि जब गठरियां देखीं तो दूसरों की इतनी बड़ी हैं, अपनी ही छोटी मालूम पड़ी! फिर, अपने दुख कम से कम परिचित तो हैं, अब दूसरे के अपरिचित दुख इस बुढ़ापे में और कौन ले! अपने दुख जाने-माने तो हैं। दूसरों के दुख कभी देखे नहीं थे, अब गठरियों में लदे देखे तो पता चला कि काफी हैं। जिनके चेहरे पर मुस्कानें थीं, वे भी बड़े-बड़े गट्ठर लिए आ रहे हैं। तो अपनी ही ठीक है। बुरा-भला जैसा भी है, कम से कम अपना तो है, जिंदगीभर से साथ रहने की आदत तो है, अनुभव तो है, निपट लेंगे। अब नए दुख और बुढ़ापे में कौन ले! पता नहीं कौन सी झंझटें आएं, जिनके साथ निपटना भी सुगम न हो, अभ्यास न हो तो कठिनाई हो जाए।
और वह देखकर यह हैरान हुआ कि उसने ही अपनी चुनी हो ऐसा नहीं, प्रत्येक ने झपटकर अपनी-अपनी चुन ली। किसी ने भी दूसरे की गठरी नहीं चुनी है। __हम देखते हैं दूसरों की मुस्कुराहटें और देखते हैं अपने दुख, इससे बड़ी एक भ्रांत स्थिति पैदा होती है। लगता है, सारा जगत मजे में है, एक हमको छोड़कर।
बुद्ध ने कहा, दुख है, सारा जगत दुखी है। तुम्ही नहीं, सारा अस्तित्व दुख से ग्रस्त है। संसार में होना ही दुख है। जो दखी नहीं है, वह संसार में होते ही नहीं। जैसे ही दुख समाप्त हो जाता है, बस उनकी संसार से यात्रा समाप्त हो गयी। यह उनका आखिरी पड़ाव है, फिर वह दुबारा न लौटेंगे। सुखी लौटते नहीं। एक दफा जो परमसुख को उपलब्ध हो गया, गया सो गया। ___ बुद्ध ने तो कहा, ऐसा चला जाता है जैसे दीए को फूंक देते हैं न और उसकी लौ विलुप्त हो जाती है, बस ऐसा विलुप्त हो जाता है। जिसको सुख मिल गया, वह गया सो गया, फिर वह लौटता नहीं। निर्वाण उसका हो जाता है। निर्वाण का अर्थ है, दीया जैसे बुझ जाता, ऐसे वह विलुप्त हो जाता है, फिर कहीं खोजे से न मिलेगा!
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