________________ सौंदर्य तो है अंतर्मार्ग में सुनकर यह तय करना कठिन है कि वे संसारी हैं या संन्यासी हैं। वही व्यर्थ की बातें। किस गांव में लोग सुंदर हैं और किस गांव में लोग सुंदर नहीं हैं। और किस गांव में दान मिलता है और किस गांव में दान नहीं मिलता। और कौन से रास्ते पर छायादार वृक्ष हैं और कौन से रास्ते पर छायादार वृक्ष नहीं हैं। वही साधारण पृथकजन की बातचीत, भीड़ की बातचीत; वही सुख-दुख की कथा, वही रोना, जो सब तरफ चल रहा है। उनकी चर्चा-वार्ता के विषय अंतर्यात्रा के विषय ही नहीं हैं। पहले तो बात करनी ही नहीं चाहिए। फिर करनी ही हो तो बात का लक्ष्य अंतर्यात्रा होनी चाहिए। पूछते एक-दूसरे से कि भिक्षु, कैसा तुम्हारा ध्यान चलता? पूछते एक-दूसरे से कि तुम्हारे आस्रव रुक रहे कि नहीं? पूछते एक-दूसरे से, अहिंसा का जन्म हो रहा है या नहीं? कहते अपनी बात कि चलता हूं बहुत, लेकिन चूक-चूक जाता हूं, विचार बाधा डालते हैं, शांति खंडित हो जाती है, एकाग्र बैठ नहीं पाता, चित्त यहां-वहां छिछल-छिछल जाता है, पारे की भांति है, जितना पकड़ता हूं उतना ही बिखर जाता है। भीतर की कुछ बात होती, भीतर की यात्रा के लिए एक-दूसरे को कुछ सहयोग देने की बात होती, तो समझ में आती थी। तो पता चलता कि ये अंतर्यात्रा के पथिक हैं। __ लेकिन उनकी चर्चा के विषय अंतर्यात्रा के विषय नहीं। वस्तुतः ऐसा लगता है कि अभी भी उनकी बहिर्यात्रा चल रही है। क्योंकि जो तुम्हारे चित्त में चल रहा है, वही तुम्हारी यात्रा है। तुम कहां बैठे हो, इससे फर्क नहीं पड़ता: मंदिर में कि मस्जिद में, इससे फर्क नहीं पड़ता; कृष्ण के साथ कि क्राइस्ट के साथ, कि बुद्ध के कि महावीर के साथ, इससे फर्क नहीं पड़ता; तुम्हारे भीतर जो चल रहा है, वही तुम्हारी यात्रा है। तुम भीतर क्या सोच रहे...। तुम यहां बैठे हो, तुम भीतर क्या सोच रहे, वहीं तुम हो। यहां होना तो तुम्हारा फिर बहुत स्थूल होना है। हुए न हुए, बराबर है। तुम्हारे भीतर जो चल रहा है, वही तुम्हारी स्थिति है; उस पर ही ध्यान रखना, वहां बहिर्यात्रा बंद होनी चाहिए। बहिर्मुखता बंद होनी चाहिए। भगवान मौन बैठे उनकी बातें सुन रहे हैं। चकित हैं! चकित हैं कि मैं यहां देने को मौजूद, मगर ये लेने को तैयार नहीं! चकित हैं कि मैं बरस रहा इनके ऊपर, लेकिन इनके मटके उलटे रखे हैं! कि मैं इन्हें भरे दे रहा हूं, लेकिन इनकी मटकियों में छिद्र हैं, वह सब बहा जा रहा है। कि मैं रोज-रोज इन्हें जगा रहा हूं और ये रोज-रोज सोए जा रहे हैं। ये और तो किस चीज के प्रति जागरूक होंगे, ये मेरी मौजूदगी के प्रति भी जागरूक नहीं हैं! चकित हैं और करुणापूर्ण भी। दया भी है कि बेचारे, संन्यस्त होकर भी संन्यासी हुए नहीं! संन्यस्त होकर भी 135