________________
सौंदर्य तो है अंतर्मार्ग में
कामना करने लगता है।
तुम चिकित्सक के पास जाते हो, चिकित्सक तुम्हारे स्वास्थ्य की बात ही कहां करता है! वह तो यही कहता है, कौन सी बीमारी? चिकित्सा करता है बीमारी की, स्वास्थ्य की तो कोई चिकित्सा होती ही नहीं। स्वास्थ्य जैसी कोई चीज डाक्टर की पकड़ में ही नहीं आती। जब बीमारी सब समाप्त हो जाती है तो तुम्हारे भीतर स्वास्थ्य का आविर्भाव होता है। स्वास्थ्य लाया नहीं जा सकता, सिर्फ बीमारी हटायी जा सकती है। इसलिए बीमारी का निदान है, इसलिए बीमारी का इलाज है।
तो बुद्ध तो कहते हैं, मैं चिकित्सक हूं। उनकी पकड़ बड़ी वैज्ञानिक है। वह कहते हैं, ये-ये बीमारियां हैं, इन-इन बीमारियों को हटा देना है, यह रही औषधि। बीमारी हट जाएगी, घटेगा स्वास्थ्य, आनंद प्रगट होगा। ऐसा ही समझो कि एक झरना है पानी का और एक चट्टान उसके मार्ग पर अड़ी है। चट्टान हटा दो, झरना बह उठेगा। चट्टान मत हटाओ और बैठकर करो पूजा और प्रार्थना कि झरना बहे, झरना नहीं बहेगा। .. अक्सर ऐसा हो जाता है कि उसी चट्टान पर बैठकर तुम पूजा कर रहे हो, प्रार्थना कर रहे हो कि हे प्रभु, झरना बहे। और उसी चट्टान पर बैठे हो। वह चट्टान हटे तो झरना अपने आप बहे। बिना किसी प्रार्थना के बहेगा।
इसलिए बुद्ध ने प्रार्थना को तो मार्ग ही नहीं कहा। बुद्ध ने तो कहा, सिर्फ ध्यान। चट्टान हट जाती है, विचार की चट्टान हट जाती है ध्यान से, विचार की बीमारी हट जाती है ध्यान की औषधि से; विचार कट गया ध्यान से, तुम निर्विचार हुए कि बस तत्क्षण झरना बह उठता है। रस बहेगा, उसकी बात ही नहीं करनी। बात करने में खतरा है। बात की कि आदमी में वासना उठती है। और खतरा यह है कि वासना के कारण ही तो आदमी आनंद को नहीं उपलब्ध कर पा रहा है। निर्वासना में आनंद है। फिर किसी के मन में आनंद की वासना उठ गयी तो उसी से बाधा पड़ जाएगी। मोक्ष की कोई कामना नहीं हो सकती। क्योंकि सभी कामनाएं सांसारिक हैं। मोक्ष की कामना भी सांसारिक है। कामना मात्र संसार है।
इसलिए मोक्ष की बुद्ध बात नहीं करते हैं। उनकी बात बड़ी वैज्ञानिक है, वे कहते हैं, दुख-निरोध। इससे ज्यादा मत पूछो। इतना कर लो, फिर आ जाना। इतना हो जाने दो, फिर पूछ लेना। इतना जिसका हो जाता है वह पूछता ही नहीं, वह आनंद में डूब जाता है, वह अपरिसीम आनंद में डूब जाता है। फिर पूछने-पाछने की बात ही नहीं रह जाती।
अब सूत्र
मग्गानटुंगिको सेट्ठो सच्चानं चतुरो पदा। विरागो सेट्ठो धम्मानं द्विपदानंच चक्खुमा ।।
145