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जुहो! जुहो! जुहो!
पहला प्रश्नः
.. मेरे पास सब है, लेकिन शांति नहीं। पूंजी है, पद है, प्रतिष्ठा
है, लेकिन सुख नहीं। मैं क्या करूं?
नहीं जी, आपके पास कुछ भी नहीं है। सबकी तो बात ही छोड़ो, कुछ भी नहीं
है। क्योंकि सब होता तो शांति होती। सब होता तो सुख होता। वृक्ष तो फल से पहचाना जाता है। फल ही न लगे, उस वृक्ष को वृक्ष कहोगे? सुख का फल नं लगे तो वृक्ष झूठा होगा। मान लिया होगा। शांति का जन्म न हो तो संपदा कैसी? फिर तुम विपदा को संपदा कह रहे हो। संपत्ति का अर्थ ही यही होता है कि जिससे सुख पैदा हो, जिसमें सुख के फूल लगें। फल से ही कसौटी है। सुनार सोने को कसता है कसौटी पर, कसौटी पर सोने का चिह्न न बने और वह कहे-सोना तो मेरे पास है लेकिन कसौटी पर चिह्न नहीं बनता, तो तुम क्या कहोगे? पागल है। _ शांति तो चिह्न है। सुख चिह्न है कसौटी पर। तुम्हारे पास संपत्ति होती तो जरूर ये चिह्न बनते। तुम न भी बनाना चाहते तो भी बनते। अनायास बनते, अपने आप बनते। तो कहीं भूल हो रही है। तुम कुछ व्यर्थ को सार्थक समझ बैठे हो। तुमने कूड़ा-करकट इकट्ठा कर लिया है और उसे तुम संपत्ति मान रहे हो। मानने से तो
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