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एस धम्मो सनंतनो
क्षणभर का धोखा है। वह ज्यादा देर न टिकेगा, वह बबूले की तरह टूट जाएगा। सत्य के साथ हार जाना भी विजय और सौभाग्य है। धन्यभागी हैं वे, जो सत्य की यात्रा में हार जाएं। और अभागे हैं वे, जो असत्य की यात्रा में जीत जाएं।
भिक्षु, ऐसा करके तो तू श्रमण नहीं होगा।
उससे कहा कि देख, तू संन्यस्त हुआ, तूने श्रमण होने की आकांक्षा की है, तू साधु हुआ, ऐसे तो तू श्रमण न हो सकेगा।
क्योंकि जिसने सभी महत्वाकांक्षाओं को शमित कर लिया, वहीं श्रमण है।
और यह तो बड़ी विक्षिप्त महत्वाकांक्षा है, विजय की महत्वाकांक्षा। और ऐसे झूठे उपाय कर रहा है! तभी उन्होंने ये सूत्र कहे
न मुंडकेन समणो अब्बतो अलिकं भणं। . इच्छालाभ समापन्नो समणो किं भविस्सति।। यो च समेति पापानि अणु थूलानि सब्बसो। समितत्ता हि पापानं समाणोति पवुच्चति।।
'जो व्रतरहित और मिथ्याभाषी है, वह मुंडित मात्र हुआ होने से श्रमण नहीं होता। इच्छालाभ से भरा हुआ पुरुष क्या श्रमण होगा?'
'जो छोटे-बड़े पापों का सर्वथा शमन करने वाला है, वह पापों के शमन के कारण ही श्रमण कहलाता है।' __जरा खयाल करना, व्यक्तिगत रूप से उससे कुछ भी नहीं कह रहे हैं। निर्वैयक्तिक सत्य कह रहे हैं। ऐसा नहीं कहा कि तू पापी है। ऐसा नहीं कहा कि तू संन्यासी नहीं है। भेद समझना। उससे तो कुछ कहा ही नहीं सीधा-सीधा। सिर्फ एक सार्वलौकिक सत्य की उदघोषणा की। उसको तो जैसे प्रसंग में ही न लिया। जैसे वह तो केवल एक निमित्त था, उस निमित्त एक धार्मिक उदघोषणा की।
'जो व्रतरहित और मिथ्याभाषी है, वह मुंडित मात्र होने से श्रमण नहीं होता।'
उससे नहीं कहा कि तू श्रमण नहीं है। वह तो निंदा हो जाती। उससे नहीं कहा कुछ भी कि तू पापी है, कि तू साधु नहीं है, कि तू असाधु है, उससे तो कुछ बात ही नहीं कही। __सदगुरु सार्वभौम सत्य बोलते हैं। व्यक्तियों से भी बोलते हैं तो भी व्यक्तियों को सीधा संबोधित नहीं करते। क्योंकि व्यक्ति को सीधा संबोधित करने में व्यक्ति को झिझक होगी, संकोच होगा, ग्लानि होगी। फिर वह झूठ बोलने लगेगा। फिर वह गुरु के सामने भी सीधा-सीधा प्रगट न हो सकेगा। कोई तो शरण चाहिए जहां सब हम अपने मन का भार उतारकर रख सकें। और जहां हमें एक भरोसा हो कि निंदा न मिलेगी, अपमान न मिलेगा।
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