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मन की मृत्यु का नाम मौन कि वह डरा है अपने भीतर । वह तुम्हें कैसे स्वीकृति दे ? तुम्हें स्वीकृति देने में तो स्वयं को भी स्वीकृति मिल जाएगी। इसलिए वह स्वीकार नहीं कर सकता ।
और भय पैदा करता है, भय के कारण तुम उसके सामने नग्न नहीं हो पाते। इसलिए न तो गुरु गुरु है, न शिष्य शिष्य है। दोनों के बीच एक औपचारिक संबंध है, थोथा, ऊपर-ऊपर का, सांसारिक । आध्यात्मिक संबंध वहां पैदा होता है जहां तुम जानते हो, गुरु समझेगा। गुरु न समझेगा तो कौन समझेगा ? जहां वह स्वीकार करेगा। जहां तुम जैसे हो वैसा ही अंगीकार करेगा । तुम्हारे अतीत के प्रति कोई निंदा का भाव नहीं होगा। तुम्हें उसके सामने नीचा नहीं देखना पड़ेगा। और साथ ही साथ वह तुम्हारे भविष्य का द्वार जरूर खोलेगा । वह कहेगा, यह हो सकता है।
जब मेरे पास कोई आता है कि शराब मैं पीता हूं, मैं कहता हूं, तू शराब की फिकर मत कर, ध्यान कर। वह कहता है, लेकिन शराब पीने वाला ध्यान कर सकता है! मैं उससे कहता हूं, अगर शराब पीने वाला ध्यान न कर सके, तब तो फिर शराब पीने वाला शराब से कभी मुक्त ही न हो सकेगा। मैं उससे कहता हूं कि तू तो ऐसी बात पूछ रहा है जैसे कि कोई मरीज डाक्टर से पूछे कि क्या बीमार दवाई ले सकता है ? बीमार दवाई न लेगा तो कौन दवाई लेगा? और जब तुम डाक्टर के पास जाते हो और तुम कहो कि मुझे टी. बी. हो गयी और वह एकदम तुम्हारी गर्दन पर सवार
जाए और कहे कि नर्क में सड़ोगे, तो तुम भी हैरान होओगे कि यह तो बड़ी मुश्किल हो गयी ! एक तो टी. बी. और अब नर्क में सड़ना पड़ेगा ! औषधि की तो बात ही न करे वह !
चिकित्सक औषधि की बात करता है। वह कहता है, यह औषधि है, कोई फिकर न करो। इस औषधि से ठीक हो जाएगी। शराबी को मैं कहता हूं, ध्यान करो; क्योंकि मैं कहता हूं कि ध्यान में और भी ऊंची शराब के पीने का सौभाग्य मिलता है। अंगूरों की शराब पी है, अब जरा आत्मा की शराब पीओ। और जब तुम्हें बेहतर शराब मिलने लगेगी तो कौन ठर्रा पीता है! जब तुम्हें भीतर की शराब मिलने लगेगी तो कौन बाहर की शराब पीता है! जब तुम्हें परमात्मा की शराब मिलने लगेगी तो फिर कौन छुद्र बातों में उलझता है ! वे अपने से छूट जाती हैं।
बुद्ध ने उसकी निंदा नहीं की, लेकिन उसके लिए द्वार खोला ।
बुद्ध ने कहा, विजय मूल्यवान नहीं है । फिर सत्य को छोड़कर जो विजय मिले भी, वह हार से भी बदतर है, हत्थक !
उसका सार क्या! प्रयोजन क्या ! सत्य ही एकमात्र मूल्य है । और जहां सत्य है, वहीं असली विजय है। अगर तू जीतना ही चाहता है तो सत्य के साथ ही जीत । सत्यमेव जयते। सत्य जीतता है, हम थोड़े ही जीतते हैं, बुद्ध ने कहा । हम सत्य के साथ हो जाते हैं तो हम भी जीत जाते हैं। असत्य हारता है । असत्य के साथ हो जाते हैं, हम भी हार जाते हैं। और असत्य से जो जीत मिलती है, वह सिर्फ धोखा है । वह
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