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क्षण है द्वार प्रभु का
और परमात्मा तुम्हारे भीतर बैठा ही हुआ है, पाओगे क्या! जागना है, बस जागना है। होश सम्हालना है।
चौथा प्रश्नः
कल आपने न्याय और करुणा की चर्चा की और कहा कि प्रज्ञावान पुरुष ही न्याय के साथ करुणा भी कर सकता है। क्या न्याय और करुणा का समन्वय संभव है?
तर्क के आधार पर तो नहीं। तर्क के तल पर तो नहीं। न्याय और करुणा का
-समन्वय तर्क के हिसाब से नहीं हो सकता, क्योंकि वे दो अलग तलों की बातें हैं।
समझो। न्याय का अर्थ ही यह होता है कि जो उचित हो, वही हो। न्याय में करुणा समाविष्ट नहीं है। न्याय का तो इतना ही अर्थ है, जो नियम उपयुक्त हो, वही हो। करुणा में हृदय है, न्याय में सिर्फ बुद्धि है। करुणा बड़ी बात है। करुणा का अर्थ है, जो होना चाहिए वही हो। नियम की बात नहीं है, नियम से बड़ी बात है।
जैसे समझो, तुम अदालत में गए, तुमने चोरी की है, तो न्यायाधीश देखता है अपनी किताबों में, उलटता-पलटता है, कानून खोजता है, तुमने पचास रुपए की चोरी की, दंड खोजता है, दंड किताब में लिखा है, हिसाब से तुम्हें दंड दे देता है। तुमसे दूर रहता है, तुमसे कोई मानवीय संबंध नहीं जोड़ता। यह नहीं सोचता कि तुम्हारे भीतर भी मनुष्य का धड़कता हुआ हृदय है। यह नहीं सोचता कि तुम्हारी पत्नी है, तुम्हारे बच्चे हैं; यह नहीं सोचता कि तुम भूखे रहे होओगे, शायद तुमने चोरी कर ली, शायद चोरी करनी पड़ी; शायद मजबूरी थी, शायद न्यायाधीश भी तुम्हारी स्थिति में होता तो चोरी करता, शायद कोई भी तुम्हारी स्थिति में होता तो चोरी करता, यह नहीं सोचता, ये बातें विचार में नहीं लाता। वह तो सिर्फ देखता है, तुमने चोरी की, चोरी का यह दंड है। वह बिलकुल अमानवीय ढंग से, यंत्रवत निर्णय देता है। तो न्याय तो हो गया, लेकिन करुणा न हुई। करुणा जरा बड़ी बात है। ___मैंने सुना है, एक चीनी फकीर न्यायाधीश था-फकीर होने के पहले। मगर फकीरी की कुछ धुन तो रही होगी तब भी। जब वह न्यायाधीश हुआ और उसके सामने पहला मुकदमा आया-बस पहला ही मुकदमा आया, दूसरा तो आने का मौका ही न रहा, क्योंकि सम्राट ने उसे निकाल बाहर कर दिया।
उसके सामने पहला मुकदमा आया-एक गरीब आदमी ने एक अमीर आदमी की चोरी कर ली थी। कोई बड़ी चोरी भी न थी, होगी कोई दो-चार सौ रुपए की।
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