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प्रवचन-७३ काल आ गया था....| संपत्ति का काल अचानक आया था न? संपत्ति का स्रोत भी गुप्त था। इसलिए नगरवासी लोग उसके प्रति शंका की दृष्टि से देखने लगे थे। देद ने किसी को भी बताया नहीं था कि उसने ‘सुवर्णसिद्धि' पायी है। बताना भी नहीं चाहिए। आफत आ गई :
कुछ ईर्ष्या से जलनेवाले लोग भी होते ही हैं। उन्होंने जाकर राजा को कह दिया : 'महाराजा, अपने नगर में एक देद वणिक है। उसको कोई गुप्त खजाना मिल गया लगता है।'
राजा देद को पहचानता नहीं था । परन्तु उसने ज्यों खजाने की बात सुनी, त्यों ही देद की खोज करने के लिए चार राजपुरुषों को भेज दिया। राजा ऐसा समझता होगा कि किसी भी प्रजाजन को खजाना-गुप्त खजाना मिल जाय, तो उस खजाने का मालिक मैं हूँ...चूँकि मैं राजा हूँ।' धन-संपत्ति का मोह छूटना बहुत मुश्किल है। प्रजावत्सल राजा कैसे होते थे?
सत्ताधीश ऐसा मानता है कि 'मैं दूसरों की संपत्ति भी ले सकता हूँ।' सत्ताधीशों में प्रजावत्सलता बहुत कम दिखाई देती है। बहुत कम सत्ताधीश प्रजावत्सल होते हैं। प्रजा की संपत्ति देखकर खुश होने वाले कुछ राजाओं के नाम इतिहास में पाये जाते हैं। गुजरात का राजा सिद्धराज, एक दिन राजमार्ग से गुजर रहा था। संध्या का समय था। एक श्रेष्ठि की हवेली पर उसने अनेक दीपक जलते हुए देखे। साथ में मंत्री था, मंत्री से पूछा : 'इतने दीये क्यों जल रहे हैं, इस हवेली पर?' मंत्री ने कहा : 'महाराजा, ये दीपक संपत्ति के सूचक हैं | जितने लाख रुपये इस श्रेष्ठि के पास होंगे, उतने दीपक होंगे।' सिद्धराज ने दूसरे दिन उस हवेली के श्रेष्ठि को राजसभा में बुलाकर पूछा : 'श्रेष्ठि, आपके पास कितने लाख रुपये हैं?' श्रेष्ठि ने कहा : 'महाराजा, मेरे पास ८४ लाख रुपये हैं।'
राजा ने तुरन्त कोषाध्यक्ष से कहा : 'इस श्रेष्ठी के वहाँ १६ लाख रुपये भेज दो।'
श्रेष्ठि से कहा : 'श्रेष्ठि, अब आपको रोजाना इतने सारे दीपक जलाने नहीं पड़ेंगे! अब आपकी हवेली पर कोटि-ध्वज लहरायेगा!'
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